रांची से बैंगलोर, फिर कोच्चि। हमने इस बार छोटा ट्रिप प्लान किया था। 24 दिसंबर हम वायु यात्रा कर शाम बैंगलोर पहुंचे। वहां से चार घंटे बाद की फ्लाइट थी कोच्चि के लिए। कोच्चि पहुंचे तो रात के नौ से ज्यादा हो गए।उस दिन कुछ मुमिकन था नहीं। हमलोग सीधे होटल पहुंचे और जल्दी सोने की कोशिश की ताकि सुबह यानी 25 दिसंबर को दोपहर तक कोच्चि शहर देख कर शाम मुन्नार में बिताने की योजना थी। मगर कहां हो पाता है सब कुछ मनचाहा।
रांची से ट्रैवल वाले से बात और बुक कर के गए थे, मगर उसने वक्त पर गाड़ी हमें नहीं भेजा। दरअसल 25 दिसंबर था उस दिन और ज्यादतर लोग छुट्टी पर थे। मगर ये हमारी समस्या नहीं थी क्योंकि अग्रिम राशि भी जमा कर दी गई थी। मगर अब क्या कहें....। पैसे दे चुके थे सो दूसरी गाड़ी नहीं कर सकते थे। बच्चे तो सुबह से स्वीमिंग पूल पर मस्त हो गए मगर हमलोग क्या करें। चूंकि हमने एयरपोर्ट के पास ही होटल लिया था । हमारा प्लान यह था कि सुबह नाश्ते के बाद होटल छोड़ देंगे और कोच्चि शहर घूमते हुए मुन्नार के लिए निकलेंगे। इंतजार करते- करते दोपहर एक बजे के आसपास आई गाड़ी। हमारा मन खराब हो चुका था क्योंकि हम कोच्चि नहीं घूम पाएंगे ये पता था हमें।
बहरहाल, हम वहां से निकले मुन्नार के लिए। ड्राइवर नया था शायद। उसने चार के बजाय छह घंटे लगा दिए। रास्ता पहाड़ी था, मगर रास्ते में मिलने वाली नदियों ने मन मोह लिया। बिल्कुल पोस्टर वाले सीन। रास्ते में देवीकुुलम नामक जगह में एक झरना दिखाई दिया। हम पहाड़ी रास्ते में चक्कर खा रहे थे इसलिए थोड़ी ताजगी के लिए गाड़ी रूकवाई। पास जाकर वाकई निराशा हुई क्योंकि एकदम पतली सी पानी की धार ऊपर से गिर रही थी और लोग तस्वीरेंं निकाल रहे थे। कोच्चि रोड पर मुन्नार से 8-10 किलोमीटर पहले है यह झरना । अथकुड फॉल्स। हमारे झारखंड में तो कमाल के झरने हैं.. मन मोहने वाले। आगे हमें दो और झरने दिखे पर हमलोग रूके नहीं।
उसी झरने के पास उतरकर हम ताजादम हो लिए। आसपास पंक्तिबद्ध दुकानें लगी थीं। कच्चे आम, अन्नानस, आंवले अाादि पलास्टिक के पैकेट में बंंद कर रखे हुए थे। ऐसा, जिसे देख सच में मुंह में पानी आ जाए। हमने आम खाया क्योंकि हमारे यहां इस मौसम में कच्चे आम नहीं मिलते। पहाड़ी रास्तों में मैंने हमेशा देखा है कि आसपास बंदर बहुत होते हैं। सड़क किनारे एक कतार में बैठकर बंदर कुछ खा रहे थे। बहुत सुंदर लगा तो एक तस्वीर ले ली।
रास्ते में कई मसालों के आउटलेटस दिखे, जिनकी अपनी खेती भी थी। वो लोग पर्यटकों को अंदर बगान में ले जाकर मसालों के पेड़ दिखाते थे। मगर हम रूके नहीं । पहुंचने की जल्दी थी। केरल मसालाेंं के लिए भी प्रसिद्ध है। कई बगान रास्ते में मिले। एक जगह जब चक्कर ज्यादा महसूूस होने लगी तो रूके। वहां दुकान से कुछ लौंंग , दालचीनी, गोलमिर्च भी खरीदा। गोलमिर्च के पेड़ भी देखे।
बहुत खूबसूरत नजारा था जहां हम रूके। दूर पहाड़ की ऊंचाई तक नारियल के पेड़ आैैर नीचे रंगबिरंगे फूल। दूर धुंध में घिरे पर्वत श्रृंखला, जिसे देखकर उत्तराखंड याद आ गया। कुछ तस्वीरें लेने के बाद हम आगे बढे। जल्द ही शाम ढलने वाली थी। एक मोड़ आया और चारों तरफ चाय के हरे-हरे बगान नजर आने लगे।
सारे ढलान में चाय की पत्तियां ऐसे बिछी थी जैसे कोई मोटी कालीन बिछी हो हरे रंग की। मन हुआ दौड़ पडूं उस रास्ते में । बीच- बीच मेे सिल्वर ओक के पेड़। लोग झुंड के झुंड सड़क किनारे गाड़ी खड़ी कर चाय के बागान में उतरे चले जा रहे थे। शाम की लालिमा छाने लगी थी। हमें अपने होटल तक पहुंचना था। हमलोग होटल 'आर्किड हाइलैंडस' में ठहरे थे जो मुन्नार बाईपास रोड में है। हम पहुंचे तो हरी चाय से स्वागत किया गया। स्वाद और गंध ने हमारी आधी थकान उतार दी। साामान कमरे में रख अपना कैमरा थाम हम भागे तुरंत चाय के बगान की तरफ क्योंकि कल की शाम हमें यहां रूकना नहीं था।
कुदरत ने खूबसूरती बख्शी है इस जगह को। कोहरे से ढंकी पहाड़ियां, बगान और चारों तरफ बिखरी हरियाली। बेहद रूमानी जगह है मुन्नार । मुन्नार नाम इसे मिला नल्लथन्नी, कुंडल और मथिरपुझा नदियों के संगम में स्थित होने के कारण। मुन्नार तमिल भाषा के दो शब्द मून तीन और आर नदियां से मिलकर बना है। यह जगह समुद्रतल से 1600 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। मुन्नार का हिल स्टेशन किसी जमाने में दक्षिण भारत के पूर्व ब्रिटिश प्रशासन का ग्रीष्मकालीन रिजॉर्ट हुआ करता था।
यहां के विस्तृत भू-भाग में फैली चाय की खेती, औपनिवेशिक बंगले, छोटी नदियां, झरने और ठंडे मौसम यहां का मुख्य आकर्षण है। हालांकि हम दिसंबर के अंतिम सप्ताह में यहां थे मगर हमारे लिए मौसम बिल्कुल सामान्य था। जैसे हमारे झारखंड बिहार में अक्टूबर के महीने में गुलाबी ठंड पड़ती है, ठीक वैसा ही मौसम यहां का लगा हमें। मुन्नार में प्रत्येक 12 वर्ष के उपरांत यहां नीला कुरीजी नामक फूल खिलता है जिससे पूरी पहाड़ी नीली हो जाती है। दरअसल यह बैंगनी रंग की होती है मगर देखने पर नीली लगती है। यह फूल अब 2018 में खिलेगा। जाहिर है, हम केवल कल्पना कर सकते हैं और कोशिश की अगले बरस फिर आएं।
हम जिस चाय बागान में घुसे वहां टाटा का बोर्ड लगा हुआ था। टाटा ने यहां चाय के संग्रहालय भी बनवाया है, जिसमें तरह-तरह के चाय के नमूने रखे हैं। मगर हम जा नहीं पाए। हालांकि हमें पता था कि टाटा के अधिकतर चाय बगान यहां हैं और हमने कई बोर्ड भी लगे देखे।
दूर पहाड़ियां कुहासे में डूब रही थी। फटाफट कुछ तस्वीरें कैमरे में कैद की। बहुत ही सुंदर नजारा...मन कहे रूक जा रे रूक जा। पहाड़ियों में दिप-दिप कर बत्तियां जलनी शुरू हो गई थी। मन मोहता है ये नजारा शुरू से मेरा। दूर घाटियों में बने मकानों की रौशनी बहुत अच्छी लगती है रात के अंधेरे में। अब हम वापस होटल आ गए। मगर कमरे में न बैठकर वहीं टैरेस पर बैठकर पहाड़ के नजारे का लुत्फ़़ उठाने लगे। तय हुआ कि बिल्कुल सुबह उठकर हम चाय बगान की सैर करेंगे।
सुबह बहुत जल्दी उठे। आसमान में बादल थे। हमेे पता नहीं लग रहा था कि सूरज निकला भी है या नहीं। जल्दी से कैमरा थाम कर बाहर निकले। अदभुत नजारा..पहाड़ के ऊपर कुहासे की परत घिरी थी। होटल के बाहर निकलते ही गुलमोहर के पेड़ पर नजर गई। लाल फूल खिले थे। कल कुछ नीले गुलमोहर भी नजर आए थे रास्ते में। अर्थात हमारी तरफ के गरमियों कि सारे फूल अभी यहां खिलते हैं। अच्छा लगा। हम पैदल ही निकले थे। तब तक सूरज की रूपहली धूप सब तरफ फैल चुकी थी। सड़क के दोनों तरफ रंंग-बिरंगे फूल, ऊपर चिड़ियों का कलरव। इधर चर्च बहुत हैं। मगर आगे मोड़ पर आश्चर्यजनक रूप से एक छोटा सा मंदिर मिला। अच्छा लगा देखकर।
आगे जिधर नजर उठती, चाय के बगान की हरी पत्तियों का गलीचा बिछा था। बीच-बीच में सिल्वर ओक के पेड़। अभी सूरज की किरनेंं पूरी धरती तक नहीं उतर पायी थी । ऊपर पेड़ की फुनगियों में धूप अटकी हुई थी। पेड़ों से छन-छन के कुछ रश्मियां नीचे पत्ते पर गिरने लगी थी। जहां सूरज की रौशनी थी वहां के पत्ते धुले-धुुले से जरा हल्के हरे रंग में चमक रहे थे तो दूसरी तरफ कुछ पत्ते गाढ़े हरे रंग के थे।
कुछ तोते पेड़ की फुनगियों पर बैठकर खा रहे थे। सब कुछ स्वच्छ और सुंदर। सुबह की महक ने स्फूर्ति भर दी थी बदन में। कल्पनाओं को साक्षात देखना बहुत अच्छा लग रहा था। अब धूप जरा तेज होने लगी थी। हम वापस लौटे अपने बसेरे की तरफ क्योंकि आज हमें यह जगह छोड़ना था। हमलोग शहर से कुछ पहले ही ठहर गए थे, प्रकृृति के ज्यादा करीब रहने को। अब हमें मुन्नार शहर भी जाना था।
हमलोग तैयार होकर दस के बजाय 11 बजे होटल से निकले। शहर जाने के लिए हमें ऊपर की ओर थोड़ी और चढ़ाई करनी थी। हमारी गाड़ी जैसे ही आगे बढ़ी, जरा और ऊंचाई पर पहुंचे, हमने तुरंत गाड़ी रूकवाई और भागे तस्वीरों के लिए। बिल्कुल वही नजारा जो हमने पोस्टरों में देख रखा था। ऊंचाई ऐसा दिखता है जैसे हरे गलीचे में पतली-पतली धारियां खींच दी गई हो। दरअसल चाय की पत्तियों को तोड़ने के लिए बनी पतली पगडंडियां इसे अलग रूप देती है। इस खूबसूरती को शब्दों में बांधना बड़ा मुश्किल है। कहीं शंकुल तो कहींं सीधी तो कहीं घुमावदार। बस हरा रंग, हरी धरती और कुहासे से भरा पहाड़। रास्ते में सर्पीली सड़क इस नजारे की खूबसूरती बढ़ा रही थी। बिल्कुल नीला आसमान और हरी धरती। कुहासे की चादर बिछी थी दूर पहाडियां पर।
अब हम कुछ देर में मुन्नार शहर में थे। शहर आम शहरों की तरह ही लगा। रास्ते में कुछ मंदिर मिले और कई खूबसूरत चर्च भी। मगर हमें हरीतिमा को देखना था सो आगे बढ़ गए। शहर से बाहर जाने पर जाम मिलने लगा। खूब सारे पर्यटक थे।
मुन्नार से लगभग 3 किमी दूर स्थित टॉप स्टेशन की ऊंचाई समुद्र तल से 1700 मीटर है। मुन्नार-कोडैकनल सड़क पर स्थित यह सबसे ऊंचा स्थान है। टॉप स्टेशन देखने आने वाले पर्यटक मुन्नार को अपना पड़ाव बनाते हैं और इस टॉप स्टेशन से पड़ोसी राज्य तमिलनाडु के विहंगम दृश्यों का आनन्द लेते हैं।
सड़क केे दोनों ओर गाड़िया लगी थी। चाय के बागान को घेरा गया था, इससे पता लगता था कि अंदर जाने की मनाही है। लोग सड़क किनारे खड़े होकर फोटो खिंचवा रहे थे। एक तरफ ढेर सारी दुकाने लगी थी। नारियल पानी, भुट्टे, कार्न और कई फल वाले।गाड़ी से उतरते ही कुछ फोटोग्राफर लपके कि फोटो निकालेंगे चाय बगान की टोकरी के साथ। मैंने मना किया। मुझे खुद फोटो लेना थाा इस नजारे क। एक दो घाोड़ेवाले भी टहल रहे थे बच्चों को बिठाकर। जिनका यह टी गार्डन था, उन्होंंने अपने बोर्ड लगाए हुए थे।
कुछ देर हम रूके। पता किया कि आगे झील है, जहां बोटिंग की जाती है। मगर इस वक्त हमारे पास उतना समय नहीं था। हमें वाकई अखर गया कि थोड़ा और वक्त लेकर आना चाहिए। मैं तो हमेशा यह मानती हूं कि जहां भी जाओ, पूरा वक्त दो। मगर परिवार के कई लोगोें के साथ रहने पर थोड़ा मुश्किल होता है। इस बार हम आठ लोग एक साथ थे। सबकी अलग पसंद। बहरहाल मन मार के हमने गाड़ी मुड़वाई और वापस।रास्ते में वन विभाग का खूबसूरत नर्सरी मिला। मेरा बड़ा मन हुआ मगर इतनी ज्यादा भीड़ बााहर ही मिली कि लगा हर हाल में घंंटे भर लग ही जाएंगे। सो बाहर से एक नीलकमल की तस्वीर ली। कुछ फूलों के रंग को आखों में भरा और तेजी से निकल लिए अगले पड़ाव की तरफ । अब हमें कोवलम जाना था। समुद्र् तट क्योंकि बच्चों को समुुद्र बेहद पसंद है।
5 comments:
मनभावन संस्मरण ,और साक्षात् चित्रण बहुत भाया .
धन्यवाद
धन्यवाद प्रतिभा जी
बेहतरीन. लिखते रहिए
बहुत खूबसूरत प्रस्तुति ...
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