दशहरे की शुभकामनाएं...
.......................................
दूर्गा पूजा या दशहरा को लेकर जबरर्दस्त नॉस्टेल्जिया है मेरे अंदर। जब भी शरद का मौसम आता है, मैं खो जाती हूंं अतीत में। कास के जंगलों से गुजरकर ढाक की आवाज में।
बचपन गांव में बीता, सो नदी-तालाब पेड़ पौधों से माेहब्बत है उतनी ही जितनी धूल माटी से। घर के सामने ही मंदिर था। सारे आयोजन आंखों के आगे। तब नवरात्र का मतलब उमंग था, मेले-ठेले थे, साथियों के साथ मस्ती थी और था बेसुध रहने का वक्त। व्रत का कोई अर्थ नहीं था, शायद सबका बचपन ऐसा ही होता है।
षष्ठी के दिन से पूजन शुरू होती थी। बेलवरण के बाद घर के सामने रौनक ही रौनक। खूबसूरत सजावट, बिजली की लड़ियों और केले के तने के साथ। सस्वर पंडितों का मंत्रजाप। मुझे नहीं याद कि हम सोने के वक्त अलावा कभी घर में पाए जाते हों। भूख की चिंता नहीं। प्रसाद वितरण होता तो पांत में लगकर बड़े दोने में प्रसाद लेते और बची भूख को शांत करने के लिए चाट वाला हमेशा मौजूद रहता।
नवरात्र के चार दिन ऐसे ही गुजरते। तीन रातों को रामलीला होती। सब लोग सुबह होने तक आनंद उठाते। हम भी खाूब मजे से सारी रात रामलीला देखते और दिन चढ़े सोए रहते। दोपहर बाद से फिर मंदिर के प्रांगण में हम सखियों के साथ जमे नजर आते।
दशहरे या विजयादशमी की जबरदस्त उमंग होती थी हमारे अंदर। तब रावण दहन हमारे गांव में नहीं होता था। दशमी के दिन चार बजे के आसपास मूर्ति विसर्जन के लिए लोग मां को मंदिर से निकालकर ट्रक में चढ़ाते। पूरे गांव की परिक्रमा कर अंत में तालाब में ले जाया जाता। जहां छोटा सा मेला लगा होता था।
इस दिन की खासियत थी कि हमलोग नए कपड़े पहनते थे। ये जरूरी था। सबके लिए। कोई कैसे भी और कितने मूल्य का ले, मगर नए कपड़े पहनने का रिवाज था और हमारे लिए बड़े उत्साह का दिन। बाद के दिनों में जब हम थोड़े बड़े हो गए तो इस तरफ ज्यादाा ध्यान रहता था कि कपड़े औरों से अलग अौर खूबसूरत हो। अब तो नए कपड़ों के लिए कोई खास दिन नहीं होता, न ही आज की पीढ़ी इंतजार करती है किसी दिन का। इसलिए वो भाव भी नहीं होता।
तो यह तय था कि हमलोग नए कपड़े पहनकर विसर्जन के लिए तालाब जाते। वहां मेेले में घूमते। चाट-पकौड़ी खाते और गुब्बारे खरीदकर विसर्जन के बाद घर लौटते। तब कोई अपने घर नहीं जाता था। सब सीधे मंदिर पहुंचते जहां चार दिनों तक मां की प्रतिमा रहती थी और रौनक भी। अब वहां अजीब सन्नााटा बिखरा रहता। एक छोटा दीप टिमटिम कर जलता रहता मंदिर में। वहां सब सर झुकाते और सबलोग बड़ों के पैर छूने सबके घर जाते।
यह मिलन का बहुत ही सुंदर वातावरण होता था। लगभग सभी लोग एक-दूसरे के घर जाते। सबके घर में तरह-तरह के व्यंजन बने होते मगर कोई अपने घर में नहीं खाता। देर रात तक सब एक दूसरे के घरों में घूमते रहते। चरण छूते और शुभकामनाएं देते।
और हम बच्चे....इतना तो खा नहीं पाते, सो जब वापस लौटते तो हमारी जेबों में टॉफियां भरी रहती और साथ में पैसे भी। हां...तब आर्शीवाद में पैसे भी मिलते थे बड़ों से.....
मैं बहुत मिस करती हूं बचपन के वो दिन...वो विजयादशमी...
3 comments:
आपकी ब्लॉग पोस्ट को आज की ब्लॉग बुलेटिन प्रस्तुति डॉ. राम मनोहर लोहिया और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। सादर ... अभिनन्दन।।
विजया दाशमी की शुभकामनाएं । सुन्दर प्रस्तुति ।
बचपन के दिन भुलाए नहीं भूलते हैं ... सुन्दर चित्र ...
Post a Comment