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हिरण्य पर्वत और मंदिर |
बहुत सालों के बाद पटना जाना हुआ। वहां के गंगा घाट के प्रति कोई विशेष आकर्षण न होने के बाद भी मां के कहने पर गंगाजल लेने काली घाट पहुंचे। मंदिर के कपाट बंद थे और घाट पर कुछ लोगों की भीड़ थी। हमने वहां से जल लिया। वहां मशीन से कचरा निकाला जा रहा था। कुछ महिलाएं पूजा कर रही थी और गंगा घाट किनारे बने शेड पर कुछ युवक युवतियां बैठे हुए थे। दूर उस पाार नाव बंधे थे। बहुत पुरानी इमारत थी, मगर आकर्षक। बाहर निकलते वक्त थी वहां और फूल पत्तियों की सडांध। हम जल्दी ही निकल गए क्योंकि शाम तक रांची वापस आना था।
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पटना के कालीघाट पर हम |
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गंगा नदी के उस पार का दृश्य |
हम वापसी में नालंदा के समीप पहुंचे तो सड़क की बांयी ओर की ऊंची पहाड़ी ने मजबूर किया कि मैं रूक कर देखूं कि ये क्या है। एक ऊंची पहाड़ी और नीचे खेती हो रही थी। तस्वीर लेने उतरी तो ऊपर पहाड़ पर मंदिर दिखा। दूसरे छोर पर गाेलाकार आकृति देख लगा कि हो न हो ये मकबरा है। इच्छा हो आई कि जरा और जानूं इसके बारे में। रास्ता पूछते हुए अंदर बस्ती में दूर तक गई । पता लगा कि वहां ऊपर जाने का रास्ता है। इसे लोग बड़ा पहाड़ कहते हैं। हम चढ़ाई चढ़ ऊपर पहुंचे तो पता लगा कि बिहार सरकार इसे पर्यटन स्थल के रूप में विकसित कर रही है। रविवार होने के कारण काफी भीड़ थी।
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हिरण्य पर्वत पर मकबरा |
ऊपर जाकर पता लगा कि इसे हिरण्य पर्वत के नाम से जाना जाता है। पहाड़ी के एक छोर पर मकबरा है तो दूसरे छोर पर मंदिर। हनुमान मंदिर काफी पुराना है और शिव मंदिर हाल के वर्षो में बनाया गया है। काफी सुरम्य जगह है। अब मुझे कुछ-कुछ याद आने लगा।
हाल ही में पढ़कर खत्म की थी आर्चाय चतुरसेन लिखित 'देवांगना'। उसके आमुख में लिखा था उन्होंने कि आजकल जिसे बिहारशरीफ कहते हैं , तब यह उदन्तपुरी कहाता था और वहां एक महाविहार था। उदंतपुरी के निकट ही विश्वविख्यात नालंदा विश्वविद्यालय था। जब मुहम्मद-बिन-खिलजी ने धर्मकेंद्रों को ध्वंस कर सैकड़ों वर्षों से संचित धन संपदा, मंदरि और मठ लूट लिया और वहां के पुजारियों, भिक्षुओं और सिद्धों का कत्लेआम किया तब बौद्धधर्म का ऐसा विनाश हुआ कि कोई नामलेवा न रहा।
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पर्वत के ऊपर से दिखता मकबरा |
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सुरम्य है पर्वत |
मुझे इस बड़ा पहाड़ और आसपास के पत्थरों की बनावट देखकर मुझे ऐसा लगने लगा कि हो न हो यह कालखंंड के उस समय में बौद्धों का विहार स्थल या शरणस्थली जरूर रही होगी। इतिहास खंगालने पर पता चलता है कि चीनी यात्री फाह्रयान और ह्वेनसांगने यात्रा वृतांत में लिखा है कि राजगीर और गंगा के मध्य निर्जन पहाड़ी पर बुद्ध ने सन् 487-488 ई. पूर्व वर्षावास किया था। यह पहाड़ी उदंतपुरी नगर में अवस्थित थी। उदंतपुरी विश्वविद्यालय भी नालंदा और विक्रमशिला विश्वविद्यालय की तरह विख्यात था। परंतु उत्खनन कार्य नहीं होने के कारण इस विश्वविद्यालय का इतिहास धरती के गर्भ में छुपा हुआ है।
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पत्थरों से बना खपरैल मकान |
बुकानन और कनिंघम ने आधुनिक बिहारशरीफ शहर जो कि नालंदा जाने के मार्ग में पड़ता है, वहाँ एक विशाल टीले का उल्लेख किया है। यहाँ के एक बौद्ध देवी की कांस्य की प्रतिमा प्राप्त हुई है। इस पर एक अभिलेख अंकित है जिसमें 'एणकठाकुट' का नाम उल्लेखित है। यह उदन्तपुरी का निवासी था। शायद इसी अभिलेख के आधार पर इस स्थान की पहचान उदन्तपुरी विश्वविद्यालय से की गई है।
इस जगह का नाम उदन्तपुरी इसलिए पड़ा क्योंकि यह हिरण्य पर्वत की ऊंचाई से शुरू होकर नीचे जमीन तक ढलान के रूप में था। कहते हैं कि यहां करीब एक हजार विद्वान और बौद्ध विद्यार्थी का आवास भी था। इन्हीं बौद्ध विद्वानों ने बाद में बौद्ध धर्म को तिब्बत में फैलाया था।
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ऊपर मंदिर और गुलामोहर तले खेलते बच्चे |
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बिहारशरीफ का नजारा |
बहरहाल, इतिहास से वर्तमान में वापस आएं तो यह जगह वास्तव में इतनी रमणीय है कि सारा दिन गुजारा जा सकता है। पहाड़ी पर एक ओर मकबरा है तो दूसरी ओर मंदिर। 1353 में शासक इब्राहिम बयां की मृत्यू हुई तो उसे पहाड़ी पर दफनाया गया और भव्य मकबरे का निर्माण किया गया था, जो आज भी मौजूद है। सरकार इसे इको पार्क के रूप में विकसित कर रही है। अनायास बड़ा पहाड़ पर घूमकर और इसके बारे में जानकर मुझे बहुत अच्छा लगा।
4 comments:
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 30-06-2016 को चर्चा मंच पर चर्चा - 2389 में दिया जाएगा
धन्यवाद
आपकी ब्लॉग पोस्ट को आज की ब्लॉग बुलेटिन प्रस्तुति सांख्यिकी दिवस और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। सादर ... अभिनन्दन।।
Dhanyawad
Dhnyawad Harshvardhan
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