मैंने जिया
इस तरह जैसे
पत्थर पर लकीर
उसने ऊंगलियों से खींची हो
और मैंने अपनी तकदीर मान ली
उसने गढ़ी
पंचतंत्र की कहानियों सी
जिंदगी, और मैं
कदम फूंक-फूंक कर चलने की
कोशिश में
घिसटती रही, वो उड़ता रहा
स्वप्न के उड़नखटोले में
मैंने दर्द की
आेढ़नी से ढक लिया वजूद
जख्म रिसता-बहता रहा
ये आवरण
चिपक गया माथे पर
जैसे बेताल चिपका रहा था
विक्रमादित्य की पीठ पर, एक गलत जवाब
और उसके सर खंडित होने के इंतजार में
हर टूटन, हर अवसाद
और बेइंतहां थकने के बाद भी
आंसुओं की
बटोरन और यादों की खुरचन से
एक झटके से
शांत करती हूं सर की तड़कती नसों को
अब भी चाहती हूं
माथे से ये बोझ उतार दे कोई
पत्थर सी लगती लकीर को
तकदीर बना दे कोई
किसी के बोए झूठे ख्वाबों में भी
कोई अनाम सा फल खिल जाए
मेरी जिंदगी से पोंछकर हर दर्द
एक नया फलसफा लिख जाए कोई।
तस्वीर...शाम जो हर रोज़ रंंग बदलती है...
3 comments:
किसी के बोए झूठे ख्वाबों में भी
कोई अनाम सा फल खिल जाए
मेरी जिंदगी से पोंछकर हर दर्द
एक नया फलसफा लिख जाए कोई।
बहुत ही सुन्दर अभिव्यक्ति रश्मिजी
आज की बुलेटिन भारत का पहला परमाणु परीक्षण और ब्लॉग बुलेटिन में आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है। सादर ... अभिनन्दन।।
बेहद खूबसूरत
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