सांझ.. जाने क्या कह रही है और मैं क्या सुन रही हूं। हथेलियों में अब भी गमक है बेली के फूलों की और जेहन में दौड़ रही है कल की शाम, जब टेसू के जंगल में रात उतरी थी और दहकता लाल रंग जैसे जलकर काला पड़ने लगा हो।
चलते-चलते मेरे पांव थम से जाते हैं। पलाश के गिरे फूलों से धरती पट गई हो जैसे। मैं एक फूल उठाती हूं हाथों में..सबसे ताजा, सबसे खिला..। लोग ताजी चीजें ही पसंद करते हैं, जैसे फ्रेश हवा, फ्रेश दूध, ताजा खिला फूल या फूल सा खिला चेहरा।
हाथ में लिया फूल नारंगी सा है...ऐसा जैसे तोते की चोंच हो। नुकीला, मुड़ा हुआ। मैं हंसती हूं। सुग्गे की नाक भी तो अच्छी लगती है। यही पलाश दिन में कितना खूबसूरत लगता है, सांझ, दिवस का अवसान कही से कुछ ले जाता है आदमी का...उसे पता भी नहीं चलता....
हम शाम की उदासी का सबब ढूंढते फिरते हैं और फंस जाते है उदासी और खुशी के बीच। प्यार और नफ़रत के बीच बड़ा बारीक सा अंतर होता है। हम किस तरफ खुद को गिरा पाएंगे, इससे अनजान होते हैं हम।
बेली में खूश्बू होती है, छूओ तो हाथों में रह जाती है..पलाश में रंग होता है, आंखों में रंग भरता है..भिगो दो तो तन को भी रंग देता है। प्यार भी बिल्कुल ऐसा ही होता है..तन-मन रंगने वाला...
मगर इसकी खूश्बू.... सदैव के लिए क्यों नहीं होती...
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