सारा पोखर डूबा है धुंध में
धरती पर दहक रहे
सैकड़ों डेफोडिल्स...
न...न , धोखा हुआ है
ये तो गुलमोहर है
लदा है लाल-लाल फूलों से
मगर कैसे
जाड़ों में नहीं खिलते
गर्मियों के फूल
आह...
ये कैसा दृष्टिभ्रम बुना है
इस कोहरे ने
न पोखर कोई न है नरगिस
एक गड्ढे पर खिले हैं
हल्दिया पीले-लाल फूल
फिर
मोतिया उतर आया है आंखों में
अतीत के परदे से निकल
सारे दृश्य गतिमान है,
जब पाला पड़ता है
शीता जाती है धरती सारी
दूब झुक जाती है बूंदों के भार तले
बोरसी की आग ठंढ़ी पड़ती है
तो आंखों में छा जाता है कुहासा
पेट में उमड़ते गोले को
दोनों घुटनों से दबाकर
चीत्कार पीने की आदत हो गई है
हर सर्दियों में
जाने ये कैसा मोतिया उतरता है
कि वर्तमान धुंध में खो जाता है
पोखर किनारे जलते हैं सैकड़ों डेफोडिल्स
दरिया सा मन काठ हो जाता है।
7 comments:
आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" शुक्रवार 11 दिसम्बर 2015 को लिंक की जाएगी............... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ....धन्यवाद!
आपकी यह उत्कृष्ट प्रस्तुति कल शुक्रवार (11.12.2015) को " लक्ष्य ही जीवन का प्राण है" (चर्चा -2187) पर लिंक की गयी है कृपया पधारे। वहाँ आपका स्वागत है, सादर धन्यबाद।
Very nice post...
Welcome to my blog on my new post.
प्रभावशाली रचना......बहुत बहुत बधाई....
Dhund ka bhram.
Sundar rachna hai.
बहुत सुंदर
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