अपेक्षाओं को उपेक्षाओं के
साए से खींच
टुकड़े-टुकड़े समेट
रूखी-रोई शाम में
मरे मन को जिंदा करने को
एक प्रयत्न किया है
एक सहज दिन की आस में
एक बेदाग रिश्ते की प्यास में
दिन अट्ठारह नहीं
अट्ठारह युगों तक महाभारत
अपने सीने में झेला है ।
कौन सा जहर पिया
जो दुनिया की हर चीज से तीखा है
उस पुरानी पहचान को
अस्वीकारता है मन
पूछता है यक्ष प्रश्न
बता, कि कौन है तू...
जो तरसते-तड़पते छोड़ आता है
अपरिचितों की तरह
गिरते खंडहर में से
कुछ शेष बचा लेने को
प्रयत्नशील होती हूं
अतीत की भव्यता और वर्तमान की
क्षुद्रता में
आत्मविश्वास बचाने को
अपनी ही आत्मा को धिक्कारती हूं
अंतरंग के कड़ुएपन का
रात के कालेपन से सौदा करती हूं
सारी उम्मीदों को
मन के निर्जीव भीत पर टांग
अपनी छाती पर अपना पद प्रहार झेलती हूं
फिर मर के जिंदा होने को।
1 comment:
बेहद ख़ूबसूरत अल्फाजों से सुसज्जित इस रचना ने मन मोह लिया .
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