इन दिनों पुरस्कार वापसी पर खूब चर्चा हो रही है। रोज नए बयान, कहीं विरोध में तो कहीं समर्थन में लोग उठ खड़े हुए हैं। मैंने खूब सोचा, पर मैं खुद को पूर्णत: किसी एक पक्ष की आेर नहीं कर पाई।
यह सच है कि अचानक आज देश में एक ऐसा माहौल बन रहा है जहाँ असहमति के बदले हिंसा , बात के बदले लात के अंदाज़ में सामने आ रही है । एक के बाद के नामचीन साहित्यकार ,अदीब , प्रखर चिन्तक , फिल्म मेकर्स , और तमाम बौद्दिक वर्ग की नुमायन्दगी करने वाली हस्तियाँ अपने अवार्ड्स को विरोध स्वरूप लौटा रहीं है। यहाँ तक कि आज़ाद हिन्दुस्तान के इतिहास में यह कोई पहले मौका होगा जब किसी साइंसदा ने भी अपना पद्मश्री पुरूस्कार सरकार को वापस देने का फैसला कर लिया है। परन्तु बड़े अफ़सोस की बात है कि हुकूमत , उसके स्पोक्स पर्सन्स और काबीना दर्जे के मिनिस्टर्स सब के सब एक ही सुर में बोलने में लगे है कि यह मात्र राजनीति है ,प्रपंच है पूर्वनियोजित कार्यक्रम है जिसके जरिये माननीय प्रधानमन्त्री जी की छवि अंतराष्ट्रीय स्तर पर खराब की जा सके ।
सरकार की छवि तो उनकी चुप्पी से भी खराब हो रही है। इतने विरोध के बावजूद कोई पहल नहीं होने से लोगों में असंतोष तो बढ़ता ही जा रहा है।
सरकार की छवि तो उनकी चुप्पी से भी खराब हो रही है। इतने विरोध के बावजूद कोई पहल नहीं होने से लोगों में असंतोष तो बढ़ता ही जा रहा है।
जहाँ तक मेरा मानना है किसी लेखक या चिंतक की अपने सामाजिक सोच और राजनैतिक चेतना हो सकती है। वर्तमान शासक वर्ग से मेल नहीं खाते हों परन्तु केवल इसीलिए इस सामजिक असहिष्णुता के मूल मुद्दे से मुंह फेर लेना नितान्त अपरिपक्वता होगी। यह बिलकुल भी सहन करने वाली बात नहीं कि कोई समूह किसी को बताये कि उसे क्या लिखना चाहिए , क्या खाना चाहिए ! हत्या चाहे कलबुर्गी जी की हो ,नामचीन पनेसर जी की या फिर गुमनाम से बाशिंदे अख्लाख की, इन सब घटनाओं के पीछे एक बड़े षड्यंत्र की गंध तो है ही ।
साहित्य से जुड़े लोग जन्मजात विद्रोही होते हैं इस देश का इतिहास गवाह है और श्रेष्ठि वर्ग के साथ उनके सम्बन्ध खट्टे मीठे भी रहे हैं। इस पर सरकार का यह कह देना कि यह सम्मान लौटाने का निर्णय उस वक़्त या इस वक़्त ,उस घटना पर या इस घटना पर क्यूं नहीं लिया गया ,मैं समझती हूँ यह मात्र फेस सेविंग है शुतुर्मुगी पलायन सरीखा। संवेदना किस समय जागृत होगीं ,किस रूप में परिकार किया जाएगा एक आजाद मुल्क के बाशिंदे होने के नाते यह हम लोगों का मूल अधिकार है. कोई कवि हो ,ग़ज़लगो या कहानीकार उसकी कलम कभी चुप नहीं रही। सत्ता के गलियारों में उस विरोध की आवाज़ सदा ही गूंजी है चाहे आपातकाल का वक़्त हो , 1984 में सिख विरोधी फसाद हों या फिर बाबरी मस्जिद राम जन्म भूमि का मसला हो या गोधरा काण्ड।
मुझे देख कर दुःख होता है कि सरकारी अमले की तरफ से एक संवादहीनता की स्थिति बनी है. इस तरह के अड़ियल रूख से इस समाज की जो तस्वीर बनने जा रही वह वाकई भयावह और विचलित कर देने वाली है!
मेरे विचार से इस मसले पर सरकार को गंभीरता से विचार करने की जरुरत है ,उन्हें समझना ही होगा कि जो लोग प्रतिकार कर रहे हैं वो जिस किसी भी विचारधारा के हों इसी लोकतंत्र के बाइज्ज़त शहरी हैं उनकी बात सुन कर उन की नाराजगी को समझ कर उसे दूर करने के प्रयास करना इस सरकार की नैतिक जिम्मेदारी है।
हरदिल अज़ीज़ शायर मुन्नवर राणा ने जब अत्यंत पीड़ा के साथ अपना अवार्ड लौटाया था और प्रधानमन्त्री कार्यालय से उन्हें मिलने बुलाया था तो उम्मीद की एक किरण मैंने भी महसूस की थी। मैं समझती हूँ , सरकार के पास कुछ अधिक समझदार लोग भी होंगे कुछ सहिष्णु लोग भी होंगे जो दुर्भाग्य से आज हाशिये पर चले गए हैं। ऐसे लोगों को आगे बढ़कर इस मसले पर सरकार और इन नाराज़ बुद्धिजीवियों के बीच सेतुबंध की तरह काम करना होगा। इस विवाद को बहुत जल्द सुलझाना होगा अन्थया वो कहावत हम सबने सुनी ही है कि साहित्य समाज का दर्पण होता है और आईने कभी गलतबयानी नहीं करते। कुछ तो दर्द है गहरा जो लोगों को जो़ड़ रहा है। अब दवा जरूरी है।
तस्वीर....छत पर उतरे कबूतरों की...
2 comments:
स्नेहमयी रश्मिजी, आपने समयोचित विचार रखे हैं। सच में इस विषय पर पूरी गम्भीरता से विचार करने की जरूरत है। बधाई। सस्नेह
Dhnyawad aapka :)
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