Friday, July 24, 2015

लहलहाते खेत बंजर हो गए.....



कौन कहता है के अब हालात बेहतर हो गए
मोम का दि‍ल रखने वाले लोग पत्‍थर हो गए।।

हम कि‍सी की याद में यूं गम का पैकर हो गए
लहलहाते खेत जैसे पल में बंजर हो गए।।

आपके आने से शाम ए ग़म सुहानी हो गई
अप्रैल के दि‍न जो थे गोया दि‍संबर हो गए।।

सोचती हूं, सोचती हूं, सोचती जाती हूं मैं
कैसे-कैसे लम्‍हे जीवन के मुकद्दर हो गए।।

रास्‍ता मि‍लता भी क्‍या हमको तुम्‍हारे शहर का
बेख़बर हैं मंजि‍लों से जो वो रहबर हो गए।।

अब के बारि‍श ने उठाया ऐसा तूफां शहर में
जाने कि‍तने लोग थे जो घर से बेघर हो गए।।

रेलवे भर्ती हो या बच्‍चों का हो दाख़ि‍ला
रि‍श्‍वतों के अड्डे अच्‍छे-अच्‍छे दफ़तर हो गए।।

जब से छोड़ा साथ मेरा तूने मेरे हमसफ़र
जो वफ़ा के रास्‍ते थे सब वो दूभर हो गए।।

वक्‍त ने ये सोचने की  ''रश्‍मि‍'' मोहलत न दी
कब मेरे बच्‍चे मेरे क़द के बराबर हो गए ।।


3 comments:

सुशील कुमार जोशी said...

बहुत सुंदर !

Tamasha-E-Zindagi said...

आपकी इस पोस्ट को शनिवार, २४ जुलाई, २०१५ की बुलेटिन - "लम्हे इंतज़ार के" में स्थान दिया गया है। कृपया बुलेटिन पर पधार कर अपनी टिप्पणी प्रदान करें। सादर....आभार और धन्यवाद। जय हो - मंगलमय हो - हर हर महादेव।

दिगम्बर नासवा said...

आपके आने से शाम ए ग़म सुहानी हो गई
अप्रैल के दि‍न जो थे गोया दि‍संबर हो गए।।
बहुत खूब ... लाजवाब शेर और बात को कहने का अंदाज़ ... मौसम सुहाना हो गया ...