मैंने देखा उनको...नजरें किसी को ढूंढ रही थी, कि वापस उस चेहरे पर अटक गई। आंखे मिलीं, पहचान के चिन्ह उभरे आैर मुस्कराहटों का आदान-प्रदान हुआ। मैंने तकरीबन 20-25 वर्षों बाद उन्हें देखा था। हम दोनों आगे बढ़ कर मिले, हाल-चाल पूछा, पर सिर्फ मेरी जुबान बोल रही थी, मैं कई वर्षों पीछे चली गई थी.....बचपन में।
यही सावन-भादों का महीना था। घटाएं घूम-घूम कर छाती और खूब बारिश होती....लगातार। चारों तरफ कीचड़...पानी।
इसी मौसम में एक फल होता था पेड़ पर....पीलापन लिए हरा-हरा...खूब खट्टा। करौंदे या आवले की प्रजाति का ही फल, गुच्छे में फलता। हम स्कूली बच्चों को खूब पसंद था। पर मुश्किल ये थी कि पूरे गांव में एक ही घर में इसका पेड़ था, जिसे हम 'हरफरौरी' कहते थे। उस घर की दो लड़कियां हमारे ही स्कूल में पढ़ती थीं। एक दीदी थी चार-पांच कक्षा आगे और छोटी वाली हमारे साथ की। सारी सहेलियां चिरौरी करती..हमारे लिए तोड़कर ला देना। वो लाकर भी देती। पर कच्चे वाले फल हममें बांटती, जो जरा कसैले होते थे और पके एवं रस वाले फल खुद खातीं।
हमारा बड़ा मन करता कि काश..हम भी बड़े-बड़े रसदार हरफरौरी खा पाते। क्लास के कुछ लड़के थे जो हमलोगों की इस कमजोरी को जानते थे। हम घर से नमक-मिर्ची लेकर जाते, लड़के जब बारिश होती तो लंच ब्रेक में साईकिल उठाकर उसके घर चले जाते और दोपहर के सन्नाटे का फायदा उठाकर तोड़ लाते। फिर हम सब मिलकर खाते।
तो बात थी इस भीगे मौसम की। हरफरौरी के पेड़ पर गदराए फल गुच्छों में लदे थे, खट्टे फल खाने को हम ललचते।
ऐसे ही एक दिन खूब बारिश...रूकने का नाम न ले। स्कूल छुट्टी के बाद भी घर जाना मुमकिन नहीं। जो बच्चे छतरी या रेनकोट नहीं नहीं लेकर आए थे वो मुश्किल में थे कि कैसे जाएं। तभी उस दीदी ने मुझे इशारे से बुलाया। मैं तब शायद तीसरी या चौथी कक्षा में पढ़ती थी। बुलाकर कहा...मैनें आज हरफरौरी सुबह ही तोड़कर रखा है। बड़े साईज वाले। तुम खाओगी ? अब ना कौन कहता है।
कहा...जाओ..घर से छाता लेकर आओ। मेरे साथ चलो...मैं दूंगी। मेरा घर पास था। मैं भीगते हुए गई और उनके लिए घर से छतरी लेकर आई। हम साथ चल पड़े। मैंने खुद को जरा भीगने दिया पर उन्हें कुछ नहीं कहा। वो बच-बच के चल रही थी क्योंकि लंबी होने के कारण छतरी उनके ही हाथ में थी। मैंने घर में किसी को नहीं बताया, क्योंकि उनका घर दूर था, मुझे सड़क पार कर अकेले जाने की इजाजत नहीं थी। फिर भी मैंने फल के लालच में उनका आॅफर स्वीकार किया।
उनके घर के पास पहुंचे। वो दरवाजे के पास जाकर रूकी। अजीब तरह से हंसी, पेड़ की तरफ इशारा कर मुझसे कहा....जाओ..जमीन में गिरे पड़े हैं फल....चुन लो जितना चुनना है। मैं हतप्रभ...ठगी सी उनका मुंह देखती रही। प्रतिवाद में एक शब्द नहीं निकला मेरे मुंह से। शायद अभिमानवश एक फल नहीं उठाया और आंख में आंसू भरे घर आ गई।
ये बात मैंने अब तक किसी को नहीं बताई। चालाकी, छल ये सब बातें बचपन में समझ नहीं आती। पर आश्चर्य है। कल जैसे मैंने उन्हें देखा, मेरी आंखों के आगे सारा दृश्य तैर उठा। मैंने उनसे बात तो कर ली, पर मन विरोध करता रहा। कह रहा था, अपरिचय जताओ आैर निकल जाओ। पर मेरे संस्कारों ने ऐसा करने की इजाजत नहीं दी। हां..किसी फिल्म की तरह फ्लैश-बैक चलता रहा...उस पांच मिनट के दरमियां।
कोई बात इतनी भी चुभ सकती है दिल को...ये दिल ने कल बताया मुझसे।
2 comments:
सुन्दर कहानी
यादें ..याद आती हैं
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