ये वो ही दिन हैं..आम पर मंजर आने का...सेमल पर पात नहीं, केवल टुह-टुह लाल फूलों से लदने का....पलाश के नारंगी फूलों के जलने का...
हां..ये फरवरी का महीना ..बस खत्म होने को....ये वर्ष भर का सबसे छोटा महीना होता है पर हमारे लिए सबसे भारी.....ये दिन काटे नहीं कटते...अजीब उमसाया सा मन.....न हंसी आती है न रोना......
हर बरस हम सोचते हैं कि इस फरवरी में क्या है ऐसा जो मन पर रेती चलती है..
कोई फगुआ गाता है...कोई अकुलाता है...लगता है सब मिट जाएगा..पर सब बच जाता है....आम के टिकोरे जैसे मन पर फूल आते हैं....प्रेम के फल
तुम्हें याद है.......
उस दिन हम साथ थे....लंबा रास्ता..एकांत...हम साथ थे पर कोई बात नहीं हो रही थी.......तुम ड्राइव कर रहे थे....मैं अगली सीट पर बैठ रास्ता निहार रही थी। हम एक शादी में जा रहे थे। अचानक मैं खिल उठी। रास्ते के दोनों किनारे कतार से पलाश के फूल खिले थे। सुर्ख पलाश.....दूर-दूर तक पलाश का जंगल।
मैंने कहा गाड़ी रोको.....तुम जानते थे मेरी आदत....किनारे लगा दी गाड़ी...मैं कैमरा उठाकर दौड़ गई जंगल में। तुम मेरे पीछे-पीछे आए।
मैं शाम ढलने से पहले दहकते जंगल की तस्वीर को अपने कैमरे में कैद करना चाह रही थी। उस क्षण कोई अवसाद...कोई तकरार याद नहीं।
तुम देख रहे थे मेरा उन्माद..;पलाश के लिए पागलपन....तुम आए पास.....सब भूलकर....अब मेरी आंखों में दहकते पलाश थे और गालों पर टूह-टूल लाल सेमल..
फरवरी जाने को है.....अगले बरस फिर खिलेंगे पलाश....आओ..... बस तुम ये याद रखो....
खुसरो दरिया प्रेम का उलटी वाकी धार।
जो उतरा सो डूब गया जो डूबा सो पार।
जो उतरा सो डूब गया जो डूबा सो पार।
छोड़ दो अब तैरना....
4 comments:
बहुत ही सुंदर रचना।
बहुत सुन्दर रश्मिजी वही फागुन,वही चहकता महकता सा मौसम वही पलाश का हर साल खिलना ,जीवन का क्रम कब कहाँ बदलता है सिवाय स्मृतियों के , पर हर साल याद जरूर आ ही जाता है खुसरो का यह छंद जो आपने वर्णित किया
खुसरो दरिया प्रेम का उलटी वाकी धार।
जो उतरा सो डूब गया जो डूबा सो पार।
बहुत सुन्दर रश्मिजी वही फागुन,वही चहकता महकता सा मौसम वही पलाश का हर साल खिलना ,जीवन का क्रम कब कहाँ बदलता है सिवाय स्मृतियों के , पर हर साल याद जरूर आ ही जाता है खुसरो का यह छंद जो आपने वर्णित किया
खुसरो दरिया प्रेम का उलटी वाकी धार।
जो उतरा सो डूब गया जो डूबा सो पार।
वाह बहुत सूंदर..
अंत का शेर भी बहुत अच्छा लगा.
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