Tuesday, December 16, 2014

इस गाँव के सपेरे थे.....


दामन पर लगे गुनाहे- बेलज्ज़त के दाग बड़े गहरे थे !!
इल्जामों की संगीनें थीं , मोहब्बत पर कड़े पहरे थे  !!

दरख्ते – यकीन को आँधियों ने हिला कर रख दिया ,
वो शाखे –शज़र ही टूट गई ,जिस पर हम ठहरे थे  !!  

मौसम-ऐ-गुल की तमाम नमी तू ही तो साथ ले गया ,
प्यास भरे इस दश्त पर भी वो बादल कभी घनेरे थे !!

तूने अदावत की पर हमने तो ज़ख्म नहीं दिए तुझे ,
तीरंदाज़ भी थे हम तीर अपने तरकश में बहुतेरे थे !!

क्यूँ समन्दर की रेत से अब आँख चुराता है नातवां  ,
कल तक जिसकी आँखों में वो दो शंख सुनहरे थे !!

साँप के फन से खेलने का फन भी हमें मालूम है ,
तुम्हें बेज़हर जो कर गये वो इस गाँव के सपेरे थे !!



तस्‍वीर पतरातू सड़क की 

3 comments:

  1. Hamesha Ki tarah hi lajawaab..dusara aashaar gazab ka

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  2. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (17-12-2014) को तालिबान चच्चा करे, क्योंकि उन्हें हलाल ; चर्चा मंच 1829 पर भी होगी।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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