इल्जामों की संगीनें थीं , मोहब्बत पर कड़े पहरे थे !!
दरख्ते – यकीन को आँधियों ने हिला कर रख दिया ,
वो शाखे –शज़र ही टूट गई ,जिस पर हम ठहरे थे !!
मौसम-ऐ-गुल की तमाम नमी तू ही तो साथ ले गया ,
प्यास भरे इस दश्त पर भी वो बादल कभी घनेरे थे !!
तूने अदावत की पर हमने तो ज़ख्म नहीं दिए तुझे ,
तीरंदाज़ भी थे हम तीर अपने तरकश में बहुतेरे थे !!
क्यूँ समन्दर की रेत से अब आँख चुराता है नातवां ,
कल तक जिसकी आँखों में वो दो शंख सुनहरे थे !!
साँप के फन से खेलने का फन भी हमें मालूम है ,
तुम्हें बेज़हर जो कर गये वो इस गाँव के सपेरे थे !!
तस्वीर पतरातू सड़क की
बहुत बढ़िया ..
ReplyDeleteHamesha Ki tarah hi lajawaab..dusara aashaar gazab ka
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (17-12-2014) को तालिबान चच्चा करे, क्योंकि उन्हें हलाल ; चर्चा मंच 1829 पर भी होगी।
ReplyDelete--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'