अज्ञेय कहते हैं.. 'बादलों के चुंबनों से खिल अयानी हरियाली, शरद की धूप में नहा निखर कर हो गई है मतवाली'
शरद ऋतु का सौंदर्य चरम पर है। आज शरद पूर्णिमा है, इस दिन सोलह कलाओं वाला चांद नीले आसमान पर चमकेगा और धवल चांदनी से मोहित करेगा, हर प्रकृति प्रेमी को। चहुं ओर है हरीतिमा..मन को लुभाती। पत्तियों पर पड़ती है धूप तो चमक उठती है वसुंधरा।
अब सुबह और शाम की हवा तन में हल्की सिहरन भरती है। दिन धुला-धुला और शाम खिली-खिली। हरसिंगार की कलियां जैसे चांदनी का इंतजार करती हों। धवल चांदनी देख ख्िाली कलियां जब सुबह धरती पर बिछी होती हैं तो उन्हें देख लगता है आकाश का प्यार बरसा है जमीन पर।
शरद के सौंदर्य की बात ही निराली है। जिसने प्रकृति को भर आंख नहीं देखा, उसने नहीं जाना कि कितने रंगों से सजाती है प्रकृति इस धरा को। हरसिंगार, मालती के पुष्प, कमल-कुमुदनी, चांदनी में खिलते धतुरा के फूल और सबसे खूबसूरत, कास के सफ़ेद फूलों से पटी धरती, खेत, नदियों का किनारा।
दूर्गा पूजा समाप्त हुई। दस दिन नहीं बल्िक महीने से चल रही तैयारी और शहर की गहमागहमी में विराम लग गया। चहल-पहल, पंडाल, लाउडस्पीकर सब शांत। इस बार दशहरे में गांव गई थी। वहां देवी प्रतिमा की स्थापना षष्ठी से होती है। पांच दिनों का दशहरा तिथि क्षय के कारण चार दिनों का ही रह गया।
इस बार जब मैं गांव की ओर गई, तो रिंग रोड के लिए नई बनी सड़क का इस्तेमाल किया। अभी ये रास्ता चालू नहीं हुआ है, इसलिए ट्रैफिक कम होती है और दूर तक हरियाली ही हरियाली देख मन को सुकून मिलता है। कुछ दिनाें पहले यानी सितंबर में भी इस रास्ते में गई थी तो खुशी से बौरा सी गई थी। सब तरफ सफेद कास के फूल खिले थे। जिस ओर नजर जाती, सफेद चादर...जैसे कास के फूलों का जंगल हो। खूब घना..दूर दूर तक। ये पहली बार देखा था मैंने। कास का जंगल, कास के खेत। बहुत अफसोस हुआ कि कैमरा लेकर नहीं गई। मोबाइल से ही कुछ तस्वीरें उतारी।
शायद फिर से तस्वीर लेने की चाह में ही इस बार भी उसी रास्ते का रूख किया मैंने। मगर पाया कि कास के फूल थे तो जरूर..मगर झड़ गए थे। अब खिले-खिले, घनेरे नहीं थे न ही वो जंगल नजर आया, जिसे देखकर मैं पागल हुई थी। अब हरे-हरे धान के पौधे लहलहा रहे थे और बीच-बीच में गुच्छे की तरह कास लहराते नजर आए जैसे हरियाली धरती की शोभा बढ़ाने कास कलगी की तरह लगी हो। लहराती हुई। जो भी हो, ,खूबसूरत अब भी लग रहा था, हालांकि उसके फूल झड़ गए थे और पहले की तरह फूंक मारने से हवा में उड़ नहीं रहे थे।
मुझे समझ नहीं आता कि ये फूल कब खिलते हैं। जनु वर्ष कृत प्रगट बुढ़ाई.....पर इस बार वर्षा के बीच ही मुझे ये खिले नजर आए और जब बारिश थमी तो फूल भी झड़ गए। हालांकि इस बार सारे त्योहार जल्दी आ रहे हैं, मगर फूल महीने के हिसाब से तो नहीं खिलते, उनका अपना ही वक्त होता है।
बचपन के बाद इस बार गई तालाब मूर्ति-विर्सजन के लिए। मां के जयकारे और अबीर-गुलाल के बीच तालाब पर नजर पड़ी, तो ठहर सी गई। पूरे तालाब में उजले-गुलाबी कमल-कुमुदिनी से पटे पड़े थे। तालाब के किनारे कास के लहलहाते उर्ध्वामुखी फूल, जैसे मां को विदा होते देखने को उचक कर ऊपर उठने की कोशिश कर रहे हैं। ऊपर आकाश में पंछियों का कलरव....
आस्था के आगे तर्क नहीं, पर मां दुर्गा की प्रतिमा को तालाब के पानी में विलीन होते देख आंख भर अाई। क्या सारे ताम-झाम और करोड़ों का पंडाल यूं ही पानी में फेंक देने को है। इतने पैसों का सदुपयोग भी तो हो सकता था। पर, फिर वही बात...आस्था और उत्साह के लिए तर्क की कसौटी नहीं होती।
बहरहाल, शरद का आनंद उठाएं, क्वार जाने ही वाला है...शरद पूर्णिमा की रात, महारास की रात, नि:शब्द हो खुले आकाश तले धवल चांदनी का आनंद उठाएं, हरसिंगार की नारंगी डंठल को चांदनी में निहारते हुए हल्की मादक खुश्बू को महसूस करें अौर प्रकृति को एक बार नई नजर से देखने की कोशिश करें...। यकीन मानिए..अगले बरस का बेसब्री से इंतजार करेंगे...मेरी तरह।
तस्वीर..मेरे कैमरे की
आलेख दिनांक 11.10.2014 को जनसत्ता के 'समांतर कॉलम' में प्रकाशित
बचपन के बाद इस बार गई तालाब मूर्ति-विर्सजन के लिए। मां के जयकारे और अबीर-गुलाल के बीच तालाब पर नजर पड़ी, तो ठहर सी गई। पूरे तालाब में उजले-गुलाबी कमल-कुमुदिनी से पटे पड़े थे। तालाब के किनारे कास के लहलहाते उर्ध्वामुखी फूल, जैसे मां को विदा होते देखने को उचक कर ऊपर उठने की कोशिश कर रहे हैं। ऊपर आकाश में पंछियों का कलरव....
आस्था के आगे तर्क नहीं, पर मां दुर्गा की प्रतिमा को तालाब के पानी में विलीन होते देख आंख भर अाई। क्या सारे ताम-झाम और करोड़ों का पंडाल यूं ही पानी में फेंक देने को है। इतने पैसों का सदुपयोग भी तो हो सकता था। पर, फिर वही बात...आस्था और उत्साह के लिए तर्क की कसौटी नहीं होती।
बहरहाल, शरद का आनंद उठाएं, क्वार जाने ही वाला है...शरद पूर्णिमा की रात, महारास की रात, नि:शब्द हो खुले आकाश तले धवल चांदनी का आनंद उठाएं, हरसिंगार की नारंगी डंठल को चांदनी में निहारते हुए हल्की मादक खुश्बू को महसूस करें अौर प्रकृति को एक बार नई नजर से देखने की कोशिश करें...। यकीन मानिए..अगले बरस का बेसब्री से इंतजार करेंगे...मेरी तरह।
तस्वीर..मेरे कैमरे की
आलेख दिनांक 11.10.2014 को जनसत्ता के 'समांतर कॉलम' में प्रकाशित
7 comments:
Manoram prakriti ka chitr to aapne shabdo se hi kheench diya nazaro ke saamne ...bahut sunder prastuti ...sunder jaaankaari ...khubsurat chitr !!
अति मनोरम !एक तो शरद का सौन्दर्य,पूरा खिला चाँद और नवरात्र का उत्सवी मन - सब के संयोजन ने शब्दों को बहुमुखी आयाम दे दिए !
आपने बहुत सुन्दर वर्णन किया है |पढ़ कर बहुत अच्छा लगा |आपकी दृष्टि बहुत पैनी है |
प्रकृति का अनोख चित्रण और फोटो भी मनमोहक है. फिजूलखर्ची पर ध्यान सबका जाता है लेकिन करोड़ों लोगों की आस्थाओं पर सवाल खड़ा करना एक बेवकूफी है.
सही है ऋतुओं का आनन्द लेते जाइये.
आप मेरे ब्लॉग पर आमंत्रित हैं. :)
सुंदर वर्णन और चित्र
शरद का चाँद नए मौसम का संकेत है ...
अच्छे चित्र संजोये हैं ...
wah bahut sundar dil khush ho gaya ....
Post a Comment