Wednesday, July 30, 2014

आज ये सांझ ढलती क्‍यों नहीं.....


आज ये सांझ ढलती क्‍यों नहीं

सूरज क्‍यों है थमा हुआ
कि‍रणें क्‍यों है शाखों पे अटकी
इतनी सारी चि‍ड़ि‍यां क्‍यों कर रही
आकाश तले तब से अठखेली

आज ये सांझ ढलती क्‍यों नहीं

समय क्‍यों नहीं है गुजरता
मैं देखती हूं बार-बार घड़ी
आज पश्‍चि‍म की लालि‍मा को
जाने कौन हर ले गया

आज ये सांझ ढलती क्‍यों नहीं

छत पर ठहरी धूप को
आंखे तरेर लौट आई हूं
पूछती हूं मजदूरों से, थके नहीं
क्‍यों जाते नहीं अब अपने घर

आज ये सांझ ढलती क्‍यों नहीं

बि‍खरी पड़ी है कि‍ताबें कई
फड़फड़ाते पन्‍नों से नि‍कलकर
भाग रहे हैं सारे अक्षर
मेरी आंखों में कुछ टि‍कता नहीं

आज ये सांझ ढलती क्‍यों नहीं

हुआ दि‍या-बाती का वक्‍त
पर नहीं बजती कि‍सी मंदि‍र में घंटी
न सुनाई देती है अज़ान
न ही झांक रहा चांद कोने से

आज ये सांझ ढलती क्‍यों नहीं

चाहती हूं अवसान हो
हो इस दि‍वस का समापन
गहरी रात का चंदोवा तने
मैं नीला आकाश मुट्ठी में दबा लूं, पर

आज ये सांझ ढलती क्‍यों नहीं

जब घना होगा अंधेरा
तो उम्‍मीद के दि‍ए जगमगाएंगे
हो कहीं भी मेरे रूठे 'पि‍या'
थके-हारे मेरे पास ही आएंगे, मगर

आज ये सांझ ढलती क्‍यों नहीं


तस्‍वीर..मेरे गांव के पास एक ढलती शाम की..

3 comments:

  1. जब घना होगा अंधेरा
    तो उम्‍मीद के दि‍ए जगमगाएंगे
    हो कहीं भी मेरे रूठे 'पि‍या'
    थके-हारे मेरे पास ही आएंगे, मगर

    आज ये सांझ ढलती क्‍यों नहीं
    वाह लाजवाब

    ReplyDelete
  2. अति उत्तम

    इंतज़ार एक हद तक हो तो ठीक है
    वरना हर एक नजरों को कोसना पड़ता है
    ओफ्फहो… आज ये सांझ ढलती क्‍यों नहीं.

    :)

    ReplyDelete
  3. प्रतीक्षा की भी एक सीमा ही होती है। , और वह बीत जाने पर अनायास मुहं से निकल ही जाता है 'आज ये सांझ ढलती क्‍यों नहीं'
    सुन्दर अभिव्यक्ति ,रश्मिजी

    ReplyDelete

अगर आपने अपनी ओर से प्रतिक्रिया पब्लिश कर दी है तो थोड़ा इंतज़ार करें। आपकी प्रतिक्रिया इस ब्लॉग पर ज़रूर देखने को मिलेगी।