आओ......आज मणिकर्णिका घाट पर धूनी रमाएं......तुम शंकर बन ढूंढना मेरे कर्णफूल...मैं पार्वती की तरह तुम्हें परेशान करना चाहती हूं.......आखिर ये शाश्वत सवाल मेरे मन को भी तो मथता है कि तुम्हारा वक्त सबके लिए है....मेरे हिस्से में इतना कम क्यों.... मुझे पता है तुम भी उलझ जाओगे...परेशान रहोगे....मगर मुझे संतुष्टि तो होगी कि ये परेशानी सिर्फ मेरे लिए है।
मणिकर्णिका घाट....कैसा अद़भुत आकर्षण है यहां का....धू-धू कर जलती चिताएं....अनवरत....24 घंटे....मोक्ष की प्रप्ति के लिए यहां शवों की भीड़ लगी होती है। इतना राख.....भस्म जमा होता है कि घाट के पास की नदी काली नजर आती है....
आओ न....जलती चिता के मध्य जीवन का सत्य तलाशें....अपने नश्वर शरीर के मोह को जरा तजे....ना....मेरी ये ख्वाहिश नहीं की मेरी मौत के बाद तुम मुझे यहां चिताग्नि दो.....
तुम्हारा साथ रहा तो जहां रहूंगी...मौत के बाद मुझे मोक्षप्राप्ति हो जाएगी....क्योंकि अब और कोई इच्छा तो शेष नहीं.....
तो आओ न.....आज मणिकर्णिका घाट पर धूनी रमाएं..
मैं और गंगा घाट - 2
my photography
4 comments:
सार्थक चित्रण।
इस कड़ी को आगे बढ़ाते रहिए।
बहुत उम्दा लेखन , रश्मिजी ,मन जब कभी नैराश्य की सहन करना स्थिति में आ जाता है ,तो किस कदर कहाँ तक सोच लेता है ,मणिकर्णिका की शांति सहन करना भी आसान नहीं
वाह,बहुत खूब
बहुत सुन्दर चित्रण -- यह इच्छा ही तो बंधन है...
चाह गयी चिंता मिती मनुआ बेपरवाह
जिनको कछू n चाहिए सोई साहन्शाह |
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