Monday, June 30, 2014

मन के कांटे........


भीग ही गई धरती...भर आए नयना...मगर तुम्‍हें न आना था...न तुम आए....बेहद उदास हूं.....अब बर्दाश्‍त नहीं होता.....तुम कभी मेरे साथ यूं भी करोगे..इसका भान नहीं था हमें....

मैं खाली हूं...मन से और वक्‍त से भी.....तुमने ऐसे बांध रखा था मुझे कि‍ 
सि‍वा तुम्‍हारे कुछ और नहीं दि‍खता ...अब भी नहीं दि‍ख रहा....सूजी आंखे कहती हैं दि‍ल के आवारगी के कि‍स्‍से...मगर कौन सुने....न वक्‍त है न कि‍सी को जरूरत

अतीत की गलि‍यों में भटक रही हूं.....कुछ सच्‍चे अनुभव..कुछ सुने कि‍स्‍से......तुम बि‍न संशय की दीवार मजबूत हुई जा रही है.....मन है कि‍ चीखकर रोना चाहता है और दि‍माग में सवालों की तड़ातड़ बौछार....

अब आग दहक रही है....दावनल...हरा-भरा जंगल धधक रहा है......बुझा दो आकर इसे डर है मुझे कि‍ सब खाक न हो जाए....कैसे संभालूं खुद को..काश कभी खुद संभलने का मौका दि‍या होता....

मुझे ही छलनी कर रहे हैं इस कैक्‍टस की तरह मन में उगे कांटे........


photography- Rashmi Sharma 

3 comments:

दिगम्बर नासवा said...

जो सोचा न हो कुछ ऐसा हो जाए तो सहन नहीं हो पाता ...

dr.mahendrag said...

अकेलापन -- इंतजार ---और फिर निराशा ----हताशा ---कुल मिला कर बेवशी का दूजा नाम है बहुत सुन्दर प्रस्तुति रश्मिजी

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
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आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल मंगलवार (01-07-2014) को ""चेहरे पर वक्त की खरोंच लिए" (चर्चा मंच 1661) पर भी होगी।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'