तुम्हारे पास होते कभी नहीं लगा मुझे, कि कोई दिन ऐसा भी आएगा जब तुम्हारी कमी महसूस होगी....जब भी सोचा...तुम बिन कुछ दिन गुजारने का....लगा वो दिन अपना होगा......तुम्हारी रोज की किचकिच से दूर....मुझे आंखों के आगे रखने की जिद से बहुतदूर......
मैं उन फुर्सत के पलों को बेहतर तरीके से जिऊंगी.....दिन अपना....शाम अपनी......
उहूं.......बहुत गलत थी मैं .....कोई साथ चले तो चार कदम दौड़कर आगे निकल जाना....या पीछे कहीं छुप जाना.....तलाशा जाना...एक सुकून देता है....अपने खास होने का अहसास कराता है...पर जब पता हो कि किसी के निगाहों की ज़द में नहीं हम......कोई देखने वाला नहीं......रोकने वाला नहीं...तो यकायक सब कुछ आकर्षणहीन हो जाता है....
बिल्कुल इस शाम की तरह....जब चलती हवा भी ठहरी सी लगे....गुलाबी शाम काली रात में गुम जाए.....तुम कहीं चले जाओ और मैं ठहर जाऊं..... अपने सीने की अबूझी दर्द को महसूस करती हुई...
शाख से गिरे इस पत्ते की तरह....नितांत अकेली...
7 comments:
आपकी लिखी रचना बुधवार 25 जून 2014 को लिंक की जाएगी...............
http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर आप भी आइएगा ....धन्यवाद!
सच कहा..
अपना कोई भी हो कैसा भी हो जब पास नहीं तो उसे जल्द ही ऑंखें, दिल, मन वक़्त बेवक़्त तलाशना शुरू कर ही देता है
बहुत बढ़िया मनोभाव
कैसे होते हैं वे पल?विचार मात्र ही झुनझुनी पैदा कर देता है मन में
मनोभावों को उकेरती सुन्दर प्रस्तुति
wah sach kaha ....anubhav hume bhi hota hai aisa....par apne usay shabd dey diye
सुन्दर
कोमल अहसासों से परिपूर्ण एक भीगी सी प्रस्तुति ! बहुत सुंदर !
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