Wednesday, April 9, 2014

घने दरख्‍़त तले....


घने तम में
ओझल होने से
पहले
उंगलि‍यों की जुम्‍बि‍श
यादों में
संजोने से पहले
आवाज की लरजि़श से
कसक उठे दि‍ल में
उससे पहले
रूक जाओ, एक बार तो
पलटकर आओ पास
इस घने दरख्‍़त तले
सुन जाओ
क्‍या कहता है जंगल का
एकांत
क्‍या कहता है
मौन प्रेम, कि‍
आईना सच का
प्रति‍बिंब होता है
मगर
मन के भाव
हर आंख को नजर
आ जाए
ये मुमि‍कन नहीं
इसलि‍ए
अंधेरे में दुबककर
टटोला नहीं जाता मन
मन की रौशनी से
भागता है
जीवन का तम....
कि‍ आ भी जाओ
कोई थमा है
घने दरख्‍़त तले
कि‍सी के इंतजार में......

my photography 

5 comments:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज बृहस्पतिवार (10-04-2014) को "टूटे पत्तों- सी जिन्‍दगी की कड़ियाँ" (चर्चा मंच-1578) पर भी है!
--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

कालीपद "प्रसाद" said...

सुन्दर प्रेमाभिव्यक्ति !

Yashwant R. B. Mathur said...

आज 10 /04/2014 को आपकी पोस्ट का लिंक है http://nayi-purani-halchal.blogspot.in (कुलदीप जी की प्रस्तुति में ) पर
धन्यवाद!

Asha Lata Saxena said...

शानदार प्रस्तुति |

Sadhana Vaid said...

जज्बातों के भार से लरज़ती सी बहुत ही बेहतरीन रचना ! अति सुंदर !