Friday, April 25, 2014

टपके भि‍नसारे महुआ के फूल.....

कूंचे पर खि‍ले महुआ के फूल 


भोर में महुआ चुनती तीनों बच्‍चि‍यां


स्‍मृति-गाछ से 
टपकते हैं
यादों के फूल
ज्‍यों टपके भि‍नसारे
जंगल में 
महुआ के फूल......

ये लि‍खा था मैंने....महुआ को लेकर..मगर कभी देखा नहीं था कि‍ भोर में ठीक सूरज उगने से पहले महुआ जब पेड़ से टपक कर गि‍रता है तो कैसा लगता है। यहां तक कि महुआ पेड़ पर फला-खि‍ला, कैसा लगता है...इसे भी देखने की लालसा थी।

यूं तो हम लि‍खना चाहे तो बहुत कुछ लि‍ख सकते हैं मगर जब तक अपने आंखों से देखकर न लि‍खा जाए तो वह जीवंत नहीं लगता।  हमने भी तय कि‍या कि‍ इस मौसम महुआ टपकने का आनंद ले। सो सुबह-सुबह चार बजे ही बि‍स्‍तर छोड़ दि‍या। 

आह...सुबह की ठंडी हवा ने तन सि‍हरा दि‍या। भाई को उठाया और चल पड़े जंगल की ओर। भोर में चि‍ड़ि‍यों का कलरव....पूरब की लालि‍मा....सूरज नहीं नि‍कला था....मगर उजास फैला था चारों ओर....मन रोमांचि‍त हो उठा।
हम पहुंचे जंगल में.....भाई ने दि‍खाया कि‍..देखो..यही है महुआ का पेड़। हम सि‍र उठाकर दरख्‍़त की ओर टकटकी लगाए देखने लगे...ढूंढने लगे महुआ के फूल.....उपर बहुत थोड़े से पत्‍ते नजर आए और शाख की फुनगि‍यों पर कूंचे खि‍ले थे...जि‍समें कई फूल थे। बहुत ही खूबसूरत....जैसे आसमान में तारा लटक रहा हो....जमीन के पास आकर। तभी सामने टप-टप करके चार-छह मुहआ के फूल गि‍रे......लपक कर हम गए और हाथ में उठाया...... 

उसे देखते ही दादी का गाया छंद याद आया.....

'' रूआ जैसा गुलगुल 
कि‍ पुआ ऐसा गाल 
दोनों दने भुरकी 
कि‍ चुटकी ऐसा बाल''

मुलायम पीले रंग का फल.....एक अजीब सी खुश्‍बू थी उसमें...जरा तीखी सी....फूलों को हाथ से हटा भी दि‍या जाए तो हथेली देर तक गमकती रहे। मैं तो पूरे दि‍न उस मादक गंध को महसूस करती रही। 

मैंने बहुत सारे फूल जमा कि‍ए। अचानक वहां तीन बच्‍चि‍यां दौड़ती आईं। सुबह में हल्‍की ठंढ थी..उन्‍होंने शाल से लपेटा था खुद को। बामुश्‍कि‍ल 7 से 10 वर्ष की होंगी। उन्‍होंने पेड़ के पीछे से अपने-अपने थैले नि‍काले। मैंने पूछा क्‍या है इसमें.....कहने लगी... मुहआ के फूल जमा कि‍ए हैं। मैंने हैरत से पूछा....ये कब कि‍या....थोड़ा शरमाकर हंसते हुए उनलोगों ने कहा....हमलोग तो हर सुबह चार बजे यहां आ जाते हैं....महुआ के फूल चुनने। ये हमारा रोज का काम है। यह पूछने पर कि‍ क्‍या करती हो....कहने लगी...सुखाकर खाते हैं...बेचते भी हैं।

मैंने सोचा कुछ और जानकारी एकत्र की जाए इस मधुक पेड़ के उपर। दरअसल बसंत के आगमन के साथ मधुक या महुआ के पेड़ भी पलाश की तरह निर्वस्त्र, पत्रहीन हो जाता है। शाखाओं की फुनगियों पर बने कूंचे में फूल विकसित होते हैं। ये कूंचे फूलों के गुच्‍छे का आभास देते हैं।  ये फूल खिलने के साथ आधी-रात से सुबह देर तक झरते रहते हैं। कूंची में वे सफेद दिखते परन्तु धरती पर आते ही हरापन लि‍या पीला नजर आता है।
 महुआ, आम आदमी का पुष्प और फल दोनों हैं। आम आदमी के सानिध्य के कारण इसे जंगली माना गया और जंगल के प्राणियों का भरपूर पोषण किया। आज के अभिजात शहरी इसे आदिवासियों का अन्न कहते हैं। सच तो यह है कि गांव में बसने वालों उन लोगों के जिनके यहां महुआ के पेड़ है, बैसाख और जेठ के महीने में इसके फूल नाश्ता और भोजन हैं।

कूंची से सूखकर गि‍रने वाले फूल स्‍वाद में मधु के जैसा लगता है। इसे आप गरीबों का कि‍शमि‍श भी कह सकते हैं।  म
हुआ के ताजे फूलों का रस निकालकर उससे बरिया, ठोकवा, लप्सी जैसे अनेक व्यंजन बनाये जाते हैं। इसके रस से पूरी भी तैयार होती है।
ग्रामीण क्षेत्रों में महुआ जैसे बहुपयोगी वृक्षों की संख्या घटती जा रही है। जहां इसकी लकड़ी को मजबूत एवं चिरस्थायी मानकर दरवाजे, खिड़की में उपयोग होता है वहीं इस समय टपकने वाला पीला फूल कई औषधीय गुण समेटे है। इसके फल को 'मोइया' कहते हैं, जिसका बीज सुखाकर उसमें से तेल निकाला जाता है। जिसका उपयोग खाने में लाभदायक होता है।

महुआ भारतवर्ष के सभी भागों में होता है ।  इसका पेड़ ऊंचा और छतनार होता है। मुझे तो बेहद आकर्षक भी लगा।  इसके फूल, फल, बीज लकड़ी सभी चीजें काम में आती है । यह पेड़  बीस- पचीस वर्ष में फूलने और फलने लगता और सैकडों वर्ष तक फूलता-फलता है । इसकी पत्तियां फूलने के पहले फागुन चैत में झड़ जाती हैं । पत्तियों के झड़ने पर इसकी डालियों के सिरों पर कलियों के गुच्छे निकलने लगते हैं जो कूर्ची के आकार के होते है । इसे महुए का कुचियाना कहते हैं । कलियों के बढ़ने पर उनके खिलने पर कोश के आकार का सफेद फूल निकलता है जो गुदारा और दोनों ओर खुला हुआ होता है और जिसके भीतर जीरे होते हैं । 

महुए का फूल बीस बाइस दिन तक लगातार टपकता है । महुए का फूल बहुत दिनों तक रहता है और बिगड़ता नहीं । महुए के फूल को पशु, पक्षी और मनुष्य सब इसे चाव से खाते हैं । गरीबों के लिये यह बड़ा ही उपयोगी होता है । लोग सुबह जल्‍दी उठकर महुआ चुन लेते हैं नहीं तो गाय और बकरी इसे चर जाते हैं। महुआ का एक ही अर्थ या कहें उपयोग हमारे दि‍माग में बैठा हुआ है कि‍ इससे शराब बनता है। महुए की शराब को संस्कृत में 'माध्वी' और देसी में 'ठर्रा' कहते हैं ।
जब तक महुआ गि‍रता है, तब तक गरीबों का डेरा उसके नीचे रहता है। यह गरीबों का भोजन होता है। खास तौर पर जब बारि‍श में कुछ और खाने को नहीं होता। गोंड जाति‍ के लोग इसकी पूजा करते हैं। उनके जीवन में महुआ का बहुत महत्‍व है। पहले महुआ के बहुत पेड़ होते थे। कई जंगल भी। अब खेती के कारण पेड़ काट दि‍स गए हैं।
महुआ के बारे में इतनी जानकारी एकत्र करने के बाद मैं कह सकती हूं कि‍ वास्‍तव में यह एक ऐसा पेड़ है..जि‍सकी ओर ध्‍यान देना चाहि‍ए। इसे केवल शराब बनाने के काम में नहीं लि‍या जाता...वास्‍तव में यह बहुउपयोगी है और आदि‍वासि‍यों के जीवन का संबल भी।

30 अप्रैल को दैनि‍क हिंदुस्‍तान के संपादकीय पृष्‍ठ पर 'साइबर कॉलम' में प्रकाशि‍त

5 comments:

  1. बहुत अच्छा लगा पढ़ कर .जयशंकर प्रसाद जी के साहित्य में मधूक वृक्ष का उल्लेख है पर .पता नहीं था वह यही महुआ है.
    आभार !

    ReplyDelete
  2. साहित्य, गानों में बहुत कई बार महुआ के पेड़ के बारे में सुना है पर शायद जाना आज ही है ...

    ReplyDelete
  3. महुआ,... बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति लगी । आपका आभार ।

    ReplyDelete

अगर आपने अपनी ओर से प्रतिक्रिया पब्लिश कर दी है तो थोड़ा इंतज़ार करें। आपकी प्रतिक्रिया इस ब्लॉग पर ज़रूर देखने को मिलेगी।