गर सुकूं कहीं है
तो उसके सीने की
धड़कनों में हैं,
जहां मेरे ही नाम की धुन
सुनाई देती है बार-बार......
मैं व्यथित होती हूं
भटकती हूं
तकती रहती हूं
मटमैले आकाश को
होती है कोशिश
सीमांत के उस पार
देखने की
जहां लगता है
गुजरा कल ठहरा होगा
बस इन आंखों को
नहीं दिखता है
थक-हार कर
भरती हूं उच्छवास
लौटती हूं
उसकी तलाश में
जिससे भागकर
ठहरे पल को
जीवंत करना चाहा था
मगर
न होना था ये, न हुआ
अब मैं वापिस
अबोध बच्चे की तरह
दुबक जाती हूं
उस के सीने में
मौन....शांत
और सोचती हूं
जो मेरा है
दुनियां में उसका
कोई सानी नहीं।
तस्वीर..अरब सागर की
2 comments:
बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
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आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (12-03-2014) को मिली-भगत मीडिया की, बगुला-भगत प्रसन्न : चर्चा मंच-1549 पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
…। जो मेरा है
दुनियां में उसका
कोई सानी नहीं।
बहुत सुन्दर
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