Wednesday, February 5, 2014

पिंजरे की मुनि‍या....


पिंजरे की मुनि‍या
धूप देख 
चहचहाती है
रोशनी से मि‍ल
पंख अपने
फड़फड़ाती है
शाम बंद कोठरी में 
जाकर
आंखें मींच दुबक जाती है
सोन चि‍रैया
सोने के पिंजरे में बंद
पीपल वाले कोटर के
ख्‍वाब देखते-देखते
सो जाती है....

13 comments:


  1. ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन किस रूप मे याद रखा जाएगा जंतर मंतर को मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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  2. बहुत सुन्दर....
    touching!!!

    अनु

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  3. एक मिडास टच है इस कविता में! मिडास जिसके छोने से चीज़ें सोना बन जाती थीं और वो इंसान तक को छू नहीं पाता था! सोने के पिंजरे भी तो पिंजरे ही होते हैं आख़िरकार!!

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  4. सुंदर ....... !!
    ________________
    ब्लॉग बुलेटिन से यहाँ पहुँचना भा गया :)

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  5. आपकी यह उत्कृष्ट प्रस्तुति कल शुक्रवार (07.02.2014) को " सर्दी गयी वसंत आया (चर्चा -1515)" पर लिंक की गयी है,कृपया पधारे.वहाँ आपका स्वागत है,धन्यबाद।

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  6. बहुत ही गहरे और सुन्दर भावो को रचना में सजाया है आपने.....

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  7. बहुत सुन्दर प्रस्तुति

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  8. पंछी को पिंजरे से अधिक कोटर है भाता !

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  9. आह वो पीपल वाला कोठर!

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  10. आह वो पीपल वाला कोठर!

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  11. वाह, क्या बात है

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