रूप का तिलिस्म जब अरूप का सामना करे, तो बेचैनियां बढ़ जाती हैं...
Wednesday, February 5, 2014
पिंजरे की मुनिया....
पिंजरे की मुनिया धूप देख चहचहाती है रोशनी से मिल पंख अपने फड़फड़ाती है शाम बंद कोठरी में जाकर आंखें मींच दुबक जाती है सोन चिरैया सोने के पिंजरे में बंद पीपल वाले कोटर के ख्वाब देखते-देखते सो जाती है....
एक मिडास टच है इस कविता में! मिडास जिसके छोने से चीज़ें सोना बन जाती थीं और वो इंसान तक को छू नहीं पाता था! सोने के पिंजरे भी तो पिंजरे ही होते हैं आख़िरकार!!
बहुत सुंदर प्रस्तुति...!
ReplyDeleteRECENT POST-: बसंत ने अभी रूप संवारा नहीं है
ReplyDeleteब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन किस रूप मे याद रखा जाएगा जंतर मंतर को मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
बहुत सुन्दर....
ReplyDeletetouching!!!
अनु
चिड़िया की नसीब सोने की पिंजड़ा !
ReplyDeleteNew post जापानी शैली तांका में माँ सरस्वती की स्तुति !
सियासत “आप” की !
एक मिडास टच है इस कविता में! मिडास जिसके छोने से चीज़ें सोना बन जाती थीं और वो इंसान तक को छू नहीं पाता था! सोने के पिंजरे भी तो पिंजरे ही होते हैं आख़िरकार!!
ReplyDeleteसुंदर ....... !!
ReplyDelete________________
ब्लॉग बुलेटिन से यहाँ पहुँचना भा गया :)
आपकी यह उत्कृष्ट प्रस्तुति कल शुक्रवार (07.02.2014) को " सर्दी गयी वसंत आया (चर्चा -1515)" पर लिंक की गयी है,कृपया पधारे.वहाँ आपका स्वागत है,धन्यबाद।
ReplyDeleteबहुत ही गहरे और सुन्दर भावो को रचना में सजाया है आपने.....
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति
ReplyDeleteपंछी को पिंजरे से अधिक कोटर है भाता !
ReplyDeleteआह वो पीपल वाला कोठर!
ReplyDeleteआह वो पीपल वाला कोठर!
ReplyDeleteवाह, क्या बात है
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