Monday, December 16, 2013

क्‍यों टूटती हूं इस कदर...


जब तल्‍खि‍यां
बाहर-ए-बर्दाश्‍त होती है
अंदर ही अंदर
कुछ चटखता है
शब्‍द धारदार होकर
काटते लगते हैं
रि‍श्‍ते के धागे
तब एकाएक लगता है
शब्‍द अपने नहीं
पराए मुंह से नि‍कली
बात है सारी
मैं तो वही हूं
जो आुसंओं में
प्‍यार लपेट
भर्रायी आवाज में
कहती है बार-बार
कि दि‍न एक भी
नहीं जी सकती
तुम्‍हारे बगैर....
फि‍र कड़वाहट भरे लम्‍हे
जाने कहां छुप जाते हैं
जैसे
स्‍लेट से मि‍टाकर
कोई नई इबारत
लि‍खी गई हो
और
नि‍शान नहीं बचता
पि‍छला कुछ
क्‍या प्‍यार
टूटकर और भी जुड़ता है
फि‍र क्‍यों
टूटती हूं इस कदर...

तस्‍वीर--साभार गूगल 

3 comments:

  1. बहुत ही सुन्दर भाव...

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  2. कोमल भाव लिए भावपूर्ण रचना...

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  3. bahut sundar rachna ............jivan ka dard hi dava ban jata hai...........

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