Wednesday, November 20, 2013

तमन्‍नाओं का मर्सिया......


सूरज की तपि‍श से
जले बदन पर
चांदनी के मरहम की
उम्‍मीद
जब से खोई है
खुश्‍क होठों पर है
तमन्‍नाओं का
मर्सिया

मरघटी सन्‍नाटे में
बुझने लगा है
नेह का दीप
पत्‍तीवि‍हि‍न हो गया
छतनार सा बरगद भी
अब जड़ ही जड़ हैं
सूखता-गि‍रता
और मैं
बनकर जड़ धरती में समाउं
बस इस इंतजार में हूं...


तस्‍वीर--साभार गूगल 

3 comments:

  1. बहुत खूब !खूबसूरत रचना,। सुन्दर एहसास .
    शुभकामनाएं.

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  2. सुन्दर प्रस्तुति

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  3. बहुत खुबसूरत एहसास पिरोये है अपने......

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