रांची में हुई बारिश के कारण कल भारत और आस्ट्रेलिया के बीच चल रहा मैच रद हो गया.....प्रशंसक मायूस और कुछ नाराज भी हुए....गुस्से में धौनी के घर का शीशा भी तोड़ दिया.....जैसे धौनी और इंद्र देव की साजिश से ही ये सब हुआ हो...
मौसम विभाग ने पहले ही चेतावनी दी थी, मैच के दौरान बारिश की.....अभी दो-तीन दिन और बारिश होगी....आज भी हो रही है....दोपहर छिटपुट और शाम से लगातार...... बरसात ने दशहरे की खु शियां पहले ही छीन ली थी, अब मौसम विभाग ने भविष्यवाणी की है कि संभवत: दीपावली के दिन भी बारिश हो.....
लक्ष्मी भक्त इस डर से कि कहीं घर सूना रहने से लक्ष्मी न रूठ जाए...स्वागत के लिए पहले ही बिजली के झालर और चाइनीज दिये की लड़ी से घर सजाने में लग जाएंगे.....साल भर का त्योहार...सूना कैसे रहे घर-आंगन..
बारिश अपनी जगह और रोशनी के त्योहार का महत्व अपनी जगह....पूर्व सावधानी वश शायद हम सब यही करें...
और इस प्रक्रिया में उलझे हम एक बार भी नहीं सोचेंगे उन कुम्हारों के बारे में जो इस एक दिन के पर्व की तैयारी में महीनों से लगे रहते हैं...इस उम्मीद में कि दीपावली में दियों और खिलौनों की बिक्री से हुई आमदनी से उनके महीनों का खर्च निकल जाएगा....
मैं वाकई मायूस और इस बेमौसम की बारिश से निराश हूं क्योंकि ......
कुछ दिनों पहले कुहासे भरी शाम में मैं जा रही थी कहीं....बरबस मेरी नजर एक कुम्हार के घर के सामने दिये पकाते हुए भट़टे पर पड़ी...चारों ओर धुआं-धुआं, आग का कहीं पता नहीं........कुम्हार के आंगन में दीपावली की तैयारी के लिए गोलाई में भट़टा लगा था जिससे निकलकर सफेद धुंआ आसपास फैल रहा था।
सबसे निचली परत में खपड़े लगे थे....उसके उपर करीने से लगी ईंटो की परत दर परत....बीच की जगह में कच्चे दिये रखे थे....लहकती आग के उपर....सबसे उपर पुआल की मोटी परत बिछाकर मिटटी से लीपकर मुंहबंद किया गया था। क्रमश: कई चरण में ऐसे सजाकर, बीच में कोयले की आग के उपर रखे दिये...चारों तरफ धुआं फैला था....अंदर हमारे घरों को उजाला देने वाला दिया और कुम्हारों के जीवनयापन का माध्यम, अपना अंतिम स्वरूप प्राप्त कर रहा था।
वहीं पास में कुम्हार कुछ सामान समेट रहा था। मैंने कुम्हार से पूछा....अभी तो दीपावली दूर है...अभी से पकाने लगे.....कहने लगा....दीदी...बहुत सारे दिये बनाने होते हैं....समय और मेहनत दोनों लगता है...पहले मिटटी गूंधो, चाक से दिए बनाओ....फिर उन्हें पकाओ....साथ में मिटटी के खिलौने भी पका लिए जाते हैं.....फिर उन पर रंग-रोगन।
अगर खूबसूरत नहीं दिखेगा तो खरीदेगा कौन...हमारी मेहनत तो पानी में चली जाएगी। उस पर मौसम का ठिकाना नहीं। बारिश पड़े तो दिये पकाएंगे कैसे....हमारे पास पक्की छत नहीं और जलावन की भी कमी है। इसलिए समझिए हमारी तैयारी साल भर चलती रहती है।
मुझे धुआं पसंद है.....शाम को लकड़ी के चूल्हे से निकली आग या कोयला जलाने की गंध बहुत आकर्षित करती है ....खासकर ठंड के दिनों में ऐसी चीजें मन को और भाती हैं। मैं कुछ देर ठहरकर उनके काम करने के ढंग को देखती रही....बात करती रही..और घर के लिए कुछ दिये भी खरीद लिए....संझा-बाती के लिए....
मन ही मन नतमस्तक थी उनकी मेहनत देखकर....मन में झोभ भी हुआ....इतनी मेहनत के बाद भी हमलोग उनसे चिखचिख करते हैं....कुछ पैसों के लिए....जिस के कारण सपरिवार वे लोग मेहनत करते हैं। वैसे भी बल्ब की रंगीन रोशनी ने दिये की पवित्र उजास पर ग्रहण लगा ही दिया है। उस पर से मौसम का कहर..
इस बार दीपावली में हमारे घरों को रौशन करने वालों के घर में मायूसी रहेगी...मौसम भी गरीबों के पेट पर लात मारने का काम कर रहा है और पक्की छतों वाले मिटटी के घरों में जलती एक दिये को रौशनी को भी बिजली के रंगीन झालरों से बुझाने में कोई कसर नहीं छोड़ेंगे.....दो पैसे कम कराने को गरीब कुम्हारों से भी मोलभाव करेंगे.... यही रीत है..शायद
तस्वीर-- कुम्हार के जीने का जरिया और मेरे कैमरे की नज़र..
'जनसत्ता' 2 नवंबर को समानांतर कॉलम में प्रकाशित आलेख
4 comments:
वाह वाह
सुन्दर प्रस्तुति-
आभार -
Touching my heart ...
Touching my heart
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