तुम्हारे सागर से प्यार की
सतह में
जब तक तैरती रही मैं
तुम लहरें उठा कर
मेरी दशा और दिशा
बदलते ही रहे
अब जब मैं
उतर रही हूं गहरे तल में
पैठ रही हूं
बस तुममें
तुम आंधियां उठाकर
मुझे किनारे पर
क्यों पटकना चाहते हो
क्या, जो झलकता रहे
छलकता रहे
वो प्यार होता है
जो शांत तल में
बैठ जाए, मिल जाए
खो जाए, एकाकार हो जाए
क्या उसे
प्यार नहीं कहते ??
वाह वाह क्या बात है ,बेहतरीन
ReplyDeleteआपकी यह पोस्ट आज के (०६ सितम्बर , २०१३) ब्लॉग बुलेटिन - यादें पर प्रस्तुत की जा रही है | बधाई
ReplyDeleteप्रेम अहसास हो तबतक ही सुखद लगता है , करीब जाओ तो छिटकने लगता है !
ReplyDeleteकामयाब अभिव्यक्ति...
ReplyDeleteबेहतरीन प्रस्तुति !!
ReplyDeleteवाह! बेहतरीन रचना है, भावपूर्ण!
ReplyDeleteबहुत सुन्दर रचना
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति। ।
ReplyDeleteसुन्दर :-)
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति.. आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी पोस्ट हिंदी ब्लॉग समूह में सामिल की गयी और आप की इस प्रविष्टि की चर्चा कल - रविवार-8/09/2013 को
ReplyDeleteसमाज सुधार कैसे हो? ..... - हिंदी ब्लॉग समूह चर्चा-अंकः14 पर लिंक की गयी है , ताकि अधिक से अधिक लोग आपकी रचना पढ़ सकें . कृपया आप भी पधारें, सादर .... Darshan jangra
बहुत सुन्दर लेखन..
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