Friday, August 30, 2013

नहीं चाहा कि तुम लहर बनकर आओ.....


समुन्‍दर कि‍नारे
सफेद-नीली गोटि‍यां खेलती
और 
रेत के घरौंदे बनाती 
बचपन से जवानी का सफ़र
नि‍काल दि‍या मैंने
तुम्‍हारे इंतजार में...

कभी नहीं चाहा
कि तुम
लहर बनकर आओ
चूमकर मेरे पैरों को
वापस लौट जाओ
उसी समंदर में 

मैंने तो सोचा था 
तुम आंधी की तरह हो 
आओगे और 
अपने आगोश में समेट कर मुझे
दूर देश चले जाओगे 

समुंदर की लहरें 
रोज मेरी गोटि‍यां भिगोएंगी 
और मेरे न आने पर 
मायूस होकर 
उन्‍हें समा लेंगेी 
अपने अंदर....

और हम-तुम 
प्‍यार की डोंगी खेते हुए 
फूलों के देश में 
एक घर बनाएंगे 
यादों की पतवार लि‍ए 
कभी-कभी समुंदर के 
कि‍नारों से बति‍याएंगे 

अपनी हथेली में समाए 
मेरे दो बूंद आंसुओं को 
याद बना संभाल लेना
क्‍योंकि अब हम 
जन्‍मों के लि‍ए 
एक हो जाएंगे 
तुम जि‍स रूप में भी आओगे 
हम वही बन जाएंगे.....

तस्‍वीर--पूरी के समुद्रतट का कि‍नारा

5 comments:

रविकर said...

क्या बात है -
बढ़िया प्रस्तुति-
आभार

अज़ीज़ जौनपुरी said...

बहत ख़ूब बेहतरीन ख़यालात

देवेन्द्र पाण्डेय said...

बहुत खूब..

Unknown said...

सुन्दर अभिव्यक्ति .खुबसूरत रचना ,कभी यहाँ भी पधारें।
सादर मदन
http://saxenamadanmohan1969.blogspot.in/
http://saxenamadanmohan.blogspot.in/

विभूति" said...

भावो को खुबसूरत शब्द दिए है अपने.....