Wednesday, July 17, 2013

एक भी नहीं थी मुझमें बात...


न वक्‍त रूका
न जिंदगी थमी
न धीमी पड़ी चांद-सूरज की रफ़तार
न हवाओं ने रूख मोड़ा उधर से
जहां पर हम खड़े थे, सहमे से

मगर तुमने---- फकत तुमने
क्‍यों छोड़ दि‍या मेरा साथ
अपने होने का यकीन दि‍ला सके
जो तुम्‍हें पसंद आ सके
क्‍या ऐसी
एक भी नहीं थी मुझमें बात....?



तस्‍वीर--फूल जो मुझे हमेशा अच्‍छे लगते हैं...बेशक मेरे कैमरे को भी

12 comments:

  1. जो तुम्‍हें पसंद आ सकेक्‍या ऐसी
    एक भी नहीं थी मुझमें बात....?

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  2. बढ़िया है आदरेया-

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  3. कुछ सिखाती समझाती कविता...... बहुत सुंदर भाव

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  4. बेहतरीन अभिव्यक्ति.

    रामराम.

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  5. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 18/07/2013 के चर्चा मंच पर है
    कृपया पधारें
    धन्यवाद

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  6. बहुत सुंदर , मंगलकामनाये

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  7. आपकी यह पोस्ट आज के (१७ जुलाई, २०१३) ब्लॉग बुलेटिन - आफिसर निर्मलजीत सिंह शेखो को श्रद्धांजलि पर प्रस्तुत की जा रही है | बधाई

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  8. बहुत सुंदर

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  9. क्या करें ये तो दिल की बात है...
    सुंदर भाव...

    एक नजर इधर भी...
    यही तोसंसार है...



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  10. सुन्दर व् सार्थक प्रस्तुति
    कभी यहाँ भी पधारें और लेखन भाने पर अनुसरण अथवा टिपण्णी के रूप में स्नेह प्रकट करने की कृपा करें |
    http://saxenamadanmohan.blogspot.in/

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