Sunday, June 9, 2013

नि‍राकार हूं.....


मैं गूंधी मि‍ट़टी
चाक पर चढ़ी
तुम एक
सधे हाथ कुम्‍हार 

सहेज लो, संवार दो
या कि फि‍र 
बि‍गाड़ दो

गढ़ लो 
एक सुंदर आकार
ति‍जोरी में अपने छुपा लो

या जी चाहे
तो तपाकर
कि‍नारे सड़क के सजा दो

शरणागत हूं
कच्‍ची मिटटी सा
लेकर मन

वि‍श्‍वास का दीपक
बना
हर सांझ जलाओ
या मि‍ट़टी समझ
मि‍टटी में मि‍ला दो

मैं गूंधी मि‍ट़टी
अब तेरे प्रेम में
नि‍राकार हूं.....


तस्‍वीर--साभार गूगल 

11 comments:

Guzarish said...

नमस्कार
आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल सोमवार (10-06-2013) के :चर्चा मंच 1271 पर ,अपनी प्रतिक्रिया के लिए पधारें
सूचनार्थ |

अज़ीज़ जौनपुरी said...

खूबशूरत अहसास से लबरेज़ बेहतरीन रचना

aarkay said...

मिट्टी और कुम्हार के बिम्ब का इतना सुंदर प्रयोग पहली बार देखा वरना दिमाग में -माटी कहे कुम्हार से - वाला प्रतिशोधात्मक विचार ही कौंधता रेहता था !
बधाई !

अरुन अनन्त said...

आपकी यह रचना कल मंगलवार (11-06-2013) को ब्लॉग प्रसारण पर लिंक की गई है कृपया पधारें.

RITA GUPTA said...

पूर्ण समर्पण

RITA GUPTA said...

पूर्ण समर्पण

वसुन्धरा पाण्डेय said...

बहुत ही सुन्दर कृति...अद्भुत...निराकार तो हूँ..आकर तुम दो...

कविता रावत said...

वि‍श्‍वास का दीपक
बना
हर सांझ जलाओ
या मि‍ट़टी समझ
मि‍टटी में मि‍ला दो
..बहुत सुन्दर सन्देश ...
..

कविता रावत said...

बहुत सुन्दर...

डॉ एल के शर्मा said...

कविता में जहाँ एक ओर प्रेम, सौन्दर्य, समर्पण का स्वर मुखरित होता दीख पड़ता है वहीँ दूसरी और एक यथार्थ का स्वर भी पूरी खूबसूरती से अभिव्यक्ति पा सका है बधाई पुनः एक बार रश्मि शर्मा जी !!

Darshan jangra said...

बहुत सुन्दर