Wednesday, June 19, 2013

नहीं मि‍लती बीर-बहुटि‍यां......


नीम की नुकीली 
पत्‍ति‍यों पर
ठहरी बूंदे
सहज ही गि‍र पड़ीं

नीम ने चाहा था
जरा सी देर
उसे
और ठहराना

मैंने चाहा था
जमीं के बजाय
हथेलि‍यों में
उसे संभालना

जो चाहता है मन
वो कब होता है
कहो तुम ही

हरदम चाहा तुमने
वीर-बहुटी बना
दोनों हथेलि‍यों के बीच
मुझे सहेजना

और मैं
बूंदों की तरह
फि‍सल जाती हूं
अनायास

देखो
अब बरसात में
नहीं मि‍लती
बीर-बहुटि‍यां

बूंदों का आचमन कर
तृप्‍त हो जाओ
कि अब तो
नीम ने भी हार मान ली.......


तस्‍वीर--साभार गूगल 

12 comments:

  1. जो चाहता है मन
    वो कब होता है
    कहो तुम ही

    ...बहुत सुन्दर और प्रभावी रचना...

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  2. आपकी यह प्रस्तुति कल के चर्चा मंच पर है
    धन्यवाद

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  3. मन के मुताबिक़ हर चीज पाना संभव नही,,,

    बहुत उम्दा अभिव्यक्ति,,,

    RECENT POST : तड़प,

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  4. 'कहो तुम ही
    जो चाहता है मन
    वो कब होता है'
    -
    समझौता करना ही पड़ता है!

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  5. प्रत्येक पंक्ति में मन की चाहत छिपी है, और कविता के अन्त में प्रत्येक चाहत को अंजाम छिपा है ,
    सच के साथ लिखी गई रचना पर आपको बधाई !
    chitranshsoul

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  6. बूंदों का आचमन कर
    तृप्‍त हो जाओ
    कि अब तो
    नीम ने भी हार मान ली.

    बहुत सुन्दर ....

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  7. बहुत सुन्दर रचना

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