बहती रहो झरना......
बहो मेरे स्वप्न सी
मन ‘झरना’
बहो बन में, बन जाओ
बनझरना
बहती रहो झरना
होकर निर्भय
तुम्हें तो मिलना है
एक दिन नदी, फिर सागर में
मगर ये भी जान लो
पयस्विनी
थार भी समाहित कर सकता है
एक नदी को
जैसे सरस्वती.....
आओ, आज आओ
विलुप्त हो जाओ
सागर से इस सीने में
थाम लूं, संभाल लूं तुम्हें
यहाँ ..यहीं
बहोगी तुम
चिरकाल तक
अंत:सलिला बनकर
मनुहारिणी
तपस्विनी सी
तस्वीर--साभार गूगल
सुन्दर!
ReplyDeletebahut khub mere naye blog par bhi aayen
ReplyDeleteआखिर कब तक अपनी बेटी को निर्भया और बेटे को सरबजीत बनाना होगा ?
सार्थक बिम्बों ,प्रतीकों के माध्यम से लिखी एक अच्छी कविता |
ReplyDeleteप्राकृतिक बिम्बों के माध्यम से गूढ़ बातों को सहजता से कह दिया है, बधाई.......
ReplyDeleteएक उत्कट चाह प्रतिध्वनित होती है आपकी इस कविता में - प्रिय को सम्पूर्ण समग्रता में पा लेने की चाह !
ReplyDeleteमगर ध्यान रहे निसर्ग की उत्कृष्टतम कृतियाँ जन जन के लिए हैं -उन पर एकाधिकार का चाह क्या आत्मकेंद्रिकता नहीं? :-)