Thursday, May 2, 2013

बहती रहो झरना......


बहो मेरे स्वप्‍न सी 
मन ‘झरना’ 
बहो बन में, बन जाओ
बनझरना
बहती रहो झरना

होकर निर्भय
तुम्हें तो मि‍लना है
एक दि‍न नदी, फि‍र सागर में
मगर ये भी जान लो

पयस्विनी
थार भी समाहि‍त कर सकता है
एक नदी को
जैसे सरस्वती.....

आओ, आज आओ
वि‍लुप्त हो जाओ
सागर से इस सीने में
थाम लूं, संभाल लूं तुम्हें

यहाँ ..यहीं
बहोगी तुम
चि‍रकाल तक
अंत:सलि‍ला बनकर
मनुहारिणी
तपस्विनी सी 


तस्‍वीर--साभार गूगल 

5 comments:

  1. सार्थक बिम्बों ,प्रतीकों के माध्यम से लिखी एक अच्छी कविता |

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  2. प्राकृतिक बिम्बों के माध्यम से गूढ़ बातों को सहजता से कह दिया है, बधाई.......

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  3. एक उत्कट चाह प्रतिध्वनित होती है आपकी इस कविता में - प्रिय को सम्पूर्ण समग्रता में पा लेने की चाह !
    मगर ध्यान रहे निसर्ग की उत्कृष्टतम कृतियाँ जन जन के लिए हैं -उन पर एकाधिकार का चाह क्या आत्मकेंद्रिकता नहीं? :-)

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