Thursday, May 16, 2013

मन की उलझन.......


अचानक थम जाए, चलती हवा
और सांझ डूबने को हो
तो लगता है 
कि‍सी के बेवक्‍त चले जाने का
मातम मना रही हो वादि‍यां....

* * * * * 

फि‍र आया था एक काला बादल
मेरे हि‍स्‍से के आस्‍मां पर
बि‍न बरसे चला गया
मेरे हाथों में है मरी ति‍तली का पंख
क्‍या इस बार बरसात
आई भी नहीं और चली गई.....

* * * * *

हो जाओ समर्पित
या करा लो समपर्ण
जब दरमि‍यां पसरा हो तनाव
तो बस यही एक आसरा है
इसके बाद
अहम से बड़ा कुछ और नहीं....

* * * * *

चलो एक बार फिर से खेलते हैं
छुप्‍पम-छुपाई
जो पकड़ में आया, वो हारा
नहीं तो सब खेल खत्‍म
बचपन, जाता कहां है हमारे भीतर से.....


तस्‍वीर-- मेरे कैमरे की नजर और सांझ

11 comments:

  1. बहुत सुन्दर प्रस्तुति ! !
    डैश बोर्ड पर पाता हूँ आपकी रचना, अनुशरण कर ब्लॉग को
    अनुशरण कर मेरे ब्लॉग को अनुभव करे मेरी अनुभूति को
    latest post हे ! भारत के मातायों
    latest postअनुभूति : क्षणिकाएं
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  2. बहुत सुंदर अभिव्यक्ति !

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  3. चलो एक बार फिर से खेलते हैं
    छुप्‍पम-छुपाई
    जो पकड़ में आया, वो हारा
    नहीं तो सब खेल खत्‍म
    बचपन, जाता कहां है हमारे भीतर से.....yahi to khush rahne ke moolmantra hai .....bahut badhiya ....

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  4. बहुत ही सुन्दर! लाजवाब!
    Please visit-
    http://voice-brijesh.blogspot.com

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  5. आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा शनिवार(18-5-2013) के चर्चा मंच पर भी है ।
    सूचनार्थ!

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  6. बचपन, जाता कहां है हमारे भीतर से.....

    जो ये चला गया तो जिंदगी बेनूर हो जाएगी ...
    हम किसके किस्‍से सुनाएंगे ...

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  7. आदरेया आपकी इस सार्थक रचना को 'निर्झर टाइम्स' पर लिंक करके कुछ गति देने का प्रयास किया गया है।कृपया http://nirjhar-times.blogspot.com पर अवलोकन करें। आपकी प्रतिक्रिया सादर आमंत्रित है।

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