Saturday, April 27, 2013

मैं बुतपरस्‍त हूं.....


हां....
कह सकते हो
मुझे भी, कि
मैं बुतपरस्‍त हूं
पूजा करती हूं
उसकी
जो है तो पत्‍थर
मगर मेरे दि‍ल में बसा है

वो देखे न देखे
चाहे न चाहे
रोज
आंसुओं से
करती हूं जलार्पण
वो सुनता नहीं
पर कह ही देती हूं
दि‍ल का दर्द

जानती हूं
इंकार न बदलेगा
इकरार में कभी
फि‍र भी
प्‍यार जताती हूं
उसकी ठोकरों पर है दि‍ल
मगर
रोज उसी के दर पे जाती हूं....


तस्‍वीर--साभार गूगल

11 comments:

सुनीता अग्रवाल "नेह" said...

wah ati sundar

Kajal Kumar's Cartoons काजल कुमार के कार्टून said...

पत्थरों से दिन न लगाना बेहतर :)

धीरेन्द्र सिंह भदौरिया said...

वाह !!!बहुत उम्दा प्रस्तुति !!!

Recent post: तुम्हारा चेहरा ,

अरुण कुमार निगम (mitanigoth2.blogspot.com) said...

सच है, विश्वास और आस्था पत्थर को भी सजीव कर देते हैं.अति सुंदर..

रचना दीक्षित said...

प्‍यार जताती हूं
उसकी ठोकरों पर है दि‍ल
मगर
रोज उसी के दर पे जाती हूं....

विश्वास इसीको कहते है. सुंदर भाव सुंदर कविता.

दिगम्बर नासवा said...

प्रेम में असा ही होता है ... फिर चाहे वो पत्थर ही क्यों न हो ... भगवान होता है ...

Guzarish said...

नमस्कार
आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल सोमवार (29-04-2013) के चर्चा मंच अपनी प्रतिक्रिया के लिए पधारें
सूचनार्थ

dr.mahendrag said...

वो देखे न देखे
चाहे न चाहे
रोज
आंसुओं से
करती हूं जलार्पण
वो सुनता नहीं
पर कह ही देती हूं
वैसे तो शायर ने कहा है,उम्र गुजरी बुतपरस्ती में,ग़ालिब, अब कब्र में क्या खाक मुस्लमान होंगे,पर दि‍ल का दर्द अपना विश्वास,अपना यकीं,अपनी आस्था,जब मजबूत हो तो पत्थर भी भगवान बन ही जाता है,इन्सान में भी भगवान अवतरित होता लगता है.
बहुत ही सुन्दर कविता. आभार.

Harihar (विकेश कुमार बडोला) said...

उसकी ठोकरों पर है दि‍ल
मगर
रोज उसी के दर पे जाती हूं....प्रेमार्पण की ऊंची कसौटी।

कालीपद "प्रसाद" said...

बहुत अच्छा प्रस्तुति
डैश बोर्ड पर पाता हूँ आपकी रचना, अनुशरण कर ब्लॉग को
अनुशरण कर मेरे ब्लॉग को अनुभव करे मेरी अनुभूति को
latest postजीवन संध्या
latest post परम्परा

डॉ एल के शर्मा said...

जानती हूं
इंकार न बदलेगा
इकरार में कभी
फि‍र भी
प्‍यार जताती हूं
उसकी ठोकरों पर है दि‍ल
मगर
रोज उसी के दर पे जाती हूं...मैंने समर्पण के ऐसे भाव नहीं देखे किसी के किसी के लिए नमन आपको ..