जाने आपने महसूस किया है या नही........रिश्ते या संबंध.....इन दिनों ठीक वैसे होने लगे हैं जैसे कोई सस्ती मीठी गोली....या लाल-पीली आइस वाली कैंडी......जो शुरू में तो बेहद मीठी लगती है....पर धीरे-धीरे सारी मिठास समाप्त
और अंत में केवल बर्फ रह जाता है....स्वादहीन.....ठंढ़ा.....
जब मिले तुम
यूं लगा
जिंदगी के खालीपन को
बुहार देने के लिए
बस एक हाथ फिरा देना काफी है
देकर तुम्हारे हाथ में हाथ
मगर, चलकर कुछ दूर
तुम हो गए ऐसे अनजान
जैसे भूले से
रास्ता भटककर
दो अनजान मुसाफिर
रूक जाते हैं एक ही पेड़ की छांव में
फिर तो ऐसा लगता है
न तुम बदले, न हम बदले
रास्ते बदल गए हैं हमारे
रेल की पटरियों की मानिंद
एक स्टेशन पर रूकना
केवल एक इत्तफाक था.....
11 comments:
zindgi khud hi ittfakan ak ittifak hai,sundar
न तुम बदले, न हम बदले
बदला तो सिर्फ जमाना और अफसाना
बेहतरीन अभिव्यक्ति
सादर
केवल एक इत्तेफ़ाक था ....क्या सचमुच ??
जिंदगी के रूप बर्फ़ के गोलों सरीखे और जिंदगी खुद अंत में बचे हुए रंगहीन बर्फ़ जैसी । कमाल है जी कमाल , बहुत ही सुंदर पंक्तियां ।
बेहतरीन अभिव्यक्ति
सादर
सुभानाल्लाह!!!! बहुत सुन्दर रचना | आभार
भावगत गहराई संबंधों की विचित्रता की।
वाह!!! बहुत बढ़िया | आनंदमय और गहन अर्थपूर्ण कविता | आभार
कभी यहाँ भी पधारें और लेखन भाने पर अनुसरण अथवा टिपण्णी के रूप में स्नेह प्रकट करने की कृपा करें |
Tamasha-E-Zindagi
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एक स्टेशन पर रूकना
केवल एक इत्तफाक था.....
बहुत बढ़िया उम्दा प्रस्तुति,आभार
Recent Post : अमन के लिए.
सुन्दर रचना
जीवन की गति बहुत तेज़ हो गई है, ज़रा रुक कर सोचना-समझना कहाँ हो , अगला स्टेशन आ जाता है.
अकेले पहाड़ी पथ पर
साथ चले थे कभी....
मेरे और तुम्हारे,
दो जोड़ी कदम,
वहां अब भी
पलाश की मुरझाई
“पांखुरी” पड़ी है.........!
मैं और तुम,
ही थे एक दूसरे का
एक मात्र सहारा,
चिलचिलाती धूप मे,
एक दूसरे के लिए
छाँव थे हम-तुम।
तुम्हें, अब याद है.. .?
तुम्हारे आँचल की
लाल रेशमी छाँव
मेरे माथे की लकीरों
कितना लड़ी है ........!
लेकिन जब, आज
नहीं हो, तुम साथ
तुम्हारे साथ की छाँव
भी कहीं मूर्छित ,
कुछ कुछ लज्जित
छुपी सी पड़ी है.........!
देवदार के तले
तुम्हारी और मेरी यादें
बेखौफ़ बतियाती रहती हैं।
और मेरी पथराई आंखे,
तुम्हारी प्रतीक्षा मे,
लीन होने को आतुर
सी खड़ी हैं...............!
उमीदें पंख पसारे
उड़ने को व्याकुल हैं।
सीढीनुमा खेत पीली
सरसों से रंगे हैं,
जैसे हरी वसुधा,
धानी चुनर पीले
फूलों वाली
पहन खडी है............!
पहाड़ी पर झर-झर
बहता निर्झर ,
आज भी पुकारता है
तुम्हे ओ निर्मम,
आज भी उस झरने
में भीगी तुम्हारी
देह की सरगम
सरस-ताल अगम
बन खड़ी है..............!
आ जाओ कि
अनंत में
विलीन होने की
मेरी आकंक्षा
पुकारती है तुम्हें
आ जाओ कि,
चंद्रमा की धवल
उजली चांदनी भी
बिरहा की इस आग में
काली पड़ी है ...........!
आओ कि, सांसों की जंजीरें
और नहीं उठाई जाती !
आओ कि दुःख की दुपहरी में
पीर छिपाई नहीं जाती !
लौट आओ फिर से
“अरावली” के उसी तप्त
दुर्गम पथ पर
आओ कि पतझर की
इस वेला में भी झर रही
मेरे सूखे से होटों पर
प्रीत के गीतों की
बासंती लड़ी है .....!(डॉ० लक्ष्मी कान्त शर्मा )
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