नहीं लिखना चाहती अब मैं
उदासी भरा कोई गीत
ना ही देखना चाहती हूं
उदास आंखों से, गिर रहे
पेड़ों के हरे पत्तों को
मैं ये भी नहीं चाहती कि
चौखट पर दिया जलाकर
मन के अंधेरे को हरने की
करूं, नाकाम सी कोशिश
मगर, चैत के इन लंबे दिन
और अजनबी सी रातों का
क्या करूं
,
कि इन दिनों
चूमकर पलकों को नींद भी
तुम सा ही दूर चली जाती है
तुम्हें भी पता है ये बात
कि आधी रात के बाद का वक्त
न चांद से मोहब्बत होती है,
न भाते हैं सितारे
बेचैन मन फिरा करता है
यादों की गलियों में उदास सा.....
तस्वीर--साभार गूगल
आधी रात के बाद वाकई बहुत मुश्किल होती है भावनाओं को .......
ReplyDeleteयादों में घूमता मन ...सुन्दर रचना ...
ReplyDeleteआधी रात के बाद ही आपकी कविता का मर्म समझ पाउँगा | कोशिश और उम्मीद कर रहा हूँ के मेरी नींद भी आपकी कविता में लिखे शब्दों से मेल खाएगी | सुन्दर कविता | उम्दा विचार | खूबसूरत रचना | आभार
ReplyDeleteकभी यहाँ भी पधारें और लेखन भाने पर अनुसरण अथवा टिपण्णी के रूप में स्नेह प्रकट करने की कृपा करें |
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बहुत उम्दा प्रस्तुति
ReplyDeleterecent postकाव्यान्जलि: होली की हुडदंग ( भाग -२ )
bahut sunder ...man ko chuti rachana
ReplyDeleteakshr nidon ka rato me ud jana kuch to hai ,sundar samvedanshil rachna
ReplyDeleteबहुत ही भावपूर्ण प्रभावशाली प्रस्तुति.
ReplyDeleteसुंदर रचना सुंदर भाव .....
ReplyDeleteसाभार.....
मगर, चैत के इन लंबे दिन
ReplyDeleteऔर अजनबी सी रातों का
क्या करूं ,
कि इन दिनों
चूमकर पलकों को नींद भी
तुम सा ही दूर चली जाती है..वाह !