Wednesday, February 20, 2013

समझ पाओगे कभी ...



क्‍या करूं अपना...बताओ
तुम्‍हें देख कर ही रो देती हैं आखें

बार-बार कुछ अटक आता है
गले में
सोचती हूं
कि अब दूं आवाज तुम्‍हें
या जाने दूं

समझ पाओगे कभी
मेरे जज्‍बात

मेरी भावनाएं तो तुम्‍हारे लिए
ठीक वैसी ही होंगी, जैसे
बहार आने के पहले गि‍रे
सूखे पत्‍तों के ढेर

जि‍न्‍हें
एक अफसोस के साथ
तुम
बुहार दोगे अपनी जिंदगी से
ये सोचते हुए कि

हर बार पतझड़ मेरे ही मन के आंगन में
इतने सूखे पत्‍ते क्‍यों गि‍रा जाती है
मैं उकता जाता हूं इनसे

है न..........

तस्‍वीर--साभार गूगल

7 comments:

Unknown said...

bahut sundar abhivyakti... Badhai
http://ehsaasmere.blogspot.in/2013/02/blog-post_18.html

पुरुषोत्तम पाण्डेय said...

बहुत दिलकश व भावपूर रचना है. अच्छी लगी.

Pratibha Verma said...

very beautiful..

Pratibha Verma said...

बहुत सुंदर रचना ...

Dinesh pareek said...

कविता के भाव एवं शब्द का समावेश बहुत ही प्रशंसनीय है

हर शब्द शब्द की अपनी अपनी पहचान बहुत खूब

बहुत खूब

मेरी नई रचना

खुशबू

प्रेमविरह

kavita vikas said...

bahut achhi panktiyaan

डॉ एल के शर्मा said...

जि‍न्‍हें
एक अफसोस के साथ
तुम
बुहार दोगे अपनी जिंदगी से
ये सोचते हुए कि

हर बार पतझड़ मेरे ही मन के आंगन में
इतने सूखे पत्‍ते क्‍यों गि‍रा जाती है
मैं उकता जाता हूं इनसे...बहुत ही खूब !!