Monday, January 21, 2013

उब की चि‍ड़ि‍या

उब की चि‍ड़ि‍या
जब भी बैठती है
मन की
टहनी पर
सुनहरी शाम
मटमैली
हो जाती है

ऐसे में
नभ का वि‍स्‍तार
ओक में समाया लगता है
और
छलका पानी
न भि‍गोता है
न कोरा रहने देता है

कैसे उड़ाउं
इस चि‍ड़ि‍यां को
चंद्रमा सा चंचल मन भी
ऐसे में
मचलता नहीं.....



6 comments:

  1. सुन्दर रचना. इस चिड़िया से कोई बच नहीं पाया.

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  2. सचाई तो यह है कि हर कविता आपने आप पढने वाले के पास आ रही है ... किताब कब आएगी ....?

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  3. सही कहा
    मोबाईल वर्ल्ड : Which can run mobile deviceenabling the Free Inter...: कौन सा मोबाइल उपकरण चला सकते हैँ फ्री इन्टरनेट फ्री इन्टरनेट मोबाइल से चलाने की बात करे तो सबसे पहला ...

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  4. उब से उपजी ..और खिन्नता से भरी यह रचना...सच के बहुत करीब...वाकई ...कुछ ऐसा ही होता है ....सुन्दर विवरण...!:)

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