वो भूगोल पढ़ाती थीं। यही बरसात के दिन थे...हल्की-हल्की बारिश..स्कूल का आंगन जिसे हम प्रांगण कहते थे, भीगा था, कीचड़ भी। अचानक वो मिस जिन्हें लड़कियां 'दीदीमनी' कहती थीं, उन्हें ही क्यों, सारी शिक्षिकाओं को दीदीमनी ही कहा जाता था, उन्होंने चुपके से बुलाया, पूछा- तुम्हारे घर के चूल्हे में आग तो होगी ? मैंने जवाब दिया - कहांं दीदीमनी..खाना तो कब का बन गया होगा। अब सिर्फ राख बची होगी। उन्होंने कहा-अरे राख तो गरम होगी ही..और अपने बैग से निकालकर एक मकई यानी भुट्टा हाथ में थमाया और कहा, दौड़ के जाओ। राख में अच्छी तरह से ढांपकर आना। एक घंटे में पक जाएगा..तब ले आना। बड़ा स्वाद होता है राख में पके मकई का....। शिक्षिका की बात मैं दौड़ गई अपने घर...पास ही तो था।
यही बरसात...काली बदरी छाती और जोरदार बारिश के आसार हो तो, समय से घंटों पहले बज गई घंटी..टन..न..न...हो गई छुट्टी। बरसात होने वाली है..दीदीमनी लोगों को घर जाने में देर हो जाएगी न...इसलिए छुट्टी। स्कूल में चार बजे के बदले तीन बजे ताला लग जाता।
आज शनिवार है....बंद करो पढ़ाई-लिखाई। क्यों भला। भई, स्कूल की साफ-सफाई भी तो छात्र ही करेंगे न। सरकारी स्कूल है। लिपाई-पुताई, झाडू़। उत्साह से सब बच्चे काम में जुट जाते। काम करो...खेलो और घर जाओ।
ठंड के दिन में मजे से धूप में खेलो कबड्डी । सभी शिक्षिकाएं गप्पें मारते हुए बिनाई में व्यस्त हैं। सबके हाथ में सलाईयां। घरवालों के लिए गर्म स्वेटर बनाने का वक्त यहीं निकलता था। हम शुरू के वक्त यानी टिफिन टाइम के पहले पढ़ते जितना पढ़ना होता, फिर तो हम बच्चों की मस्ती...सारा दिन खेल-खेल और बस खेल।
ऐसी ही बहुत सी यादें हैं अपने माध्यमिक स्कूल की। छठी कक्षा तक ऐसी ही पढ़ाई की। बैठने के लिए अपना बोरा और साथ में बस्ता लिए...पहुंच गए स्कूल। जाने पढ़ाई होती थी या हम बस एक बंधे समय में अपना वक्त स्कूल के दे घर लौटते थे।
सरकारी स्कूल में पढ़ने और इस तरीके से पढ़ने के बाद मैं नाज से किसी शिक्षक का नाम नहीं ले पाती मगर इतना जरूर है कि पढ़ाई में ढील मिलने का कारण हम खूब मन से स्कूल जाते और दिन भर खेलते।
हां..टयूशन पढ़ाने करमचंद सर आते थे। जो भी हूं आज, जितना भी हूं...इसका श्रेय उन्हें ही दूंगी। स्कूल से वापस घर आई....बस्ता पटककर बाहर तितिलयां पकड़ने भाग जाती। वक्त का पता नहीं चलता। शाम होने से पहले सर की साईकिल की घंटी बजती। हम अनसुना करते। वो हमारे पास आते और हम धमकाकर, पकड़कर घर लाए जाते और पढ़कर उन पर एहसान करते।
पाठ याद नहीं होने पर छड़ी से मारते...रोओ तो कहते- 'गुरू जी मारे धम-धम..विद्या आए छम-छम'। और किसी दिन पढ़ाई पर ध्यान नहीं दो या गलत जवाब दो तो अपना पसंदीदा मुहावरा दुहराते थे वो।...'कानी गाय के अलगे बथान'। नहीं भूलती बचपन की याद। गांव का माहौल और उस वक्त की पढ़ाई।
वैसे सब बुरा ही नहीं रहा। सातवीं कक्षा में हाई स्कूल गई। वहां की प्रिंसिपल आएशा कुजूर ने अपनी जिद व मेहनत के बल पर हाई स्कूल शुरू किया था, लड़कियों के लिए। हालांकि लड़कियों की उपस्थिति जितनी थी उस मुकाबले न शिक्षक थे...न सुविधा। केवल दो कमरे और बरामदे में बैठाकर कक्षा सात से दस तक की पढ़ाई होती। मगर यूनिफार्म, अनुशासन, पढ़ाई का महत्व, नाटक मंचन आदि सब वहीं सीखा। बहुत ही कम सुविधाओं के बावजूद....दो किलोमीटर पैदल चल कर जाना पड़ता था। शिक्षक कम, बरसात में खपरैल छत से पानी टपटप गिरता, मगर भी...आएशा मैडम की जलाई ज्योत हमारे मन में जलने लगी। पढ़ाई का महत्व समझा। दसवीं के बाद इन्टरमीडिएट...फिर मास्टर डिग्री...समझदार हो गई थी तब तक।
आएशा मैडम..विभा मैडम..अमोल मैडम..बसंती मैडम....बस तो। पूरा स्कूल इन्हीं के कंधों पर था। आएशा मैडम तो आज तक इसी स्कूल से जुड़ी हैं। रिटायरमेंट के बाद भी वो जाती हैं कक्षा लेने। उनके जज्बे के कारण आज गांव में पढ़ाई और उच्चशिक्षा का माहौल है। ऐसे ही कुछ शिक्षकों के बदौलत आज की पीढ़ी इंसान बन रही है।
हालांकि ऐसे लोग बहुत कम हैं और आज जो शिक्षा व्यवसायीकरण हो गया है, मुझे कई कटु अनुभव हुए इन दिनों। अपने और आसपास के बच्चों से जुड़े। मुझे लगता है सरकार के लगातार कार्य करने और सुविधा प्रदान करने के बावजूद सुदूर गांवों में आज भी कुछ ऐसा ही माहौल है। अगर शिक्षक अपना दायित्व सही तरह से निभाएं तो नि:संदेह देश की हालत कुछ और होगी।
इसलिए....मेरे श्रद्धेय...मेरे गुरुजन...आप जहां भी हों....मेरा शत-शत नमन...।
यही बरसात...काली बदरी छाती और जोरदार बारिश के आसार हो तो, समय से घंटों पहले बज गई घंटी..टन..न..न...हो गई छुट्टी। बरसात होने वाली है..दीदीमनी लोगों को घर जाने में देर हो जाएगी न...इसलिए छुट्टी। स्कूल में चार बजे के बदले तीन बजे ताला लग जाता।
आज शनिवार है....बंद करो पढ़ाई-लिखाई। क्यों भला। भई, स्कूल की साफ-सफाई भी तो छात्र ही करेंगे न। सरकारी स्कूल है। लिपाई-पुताई, झाडू़। उत्साह से सब बच्चे काम में जुट जाते। काम करो...खेलो और घर जाओ।
ठंड के दिन में मजे से धूप में खेलो कबड्डी । सभी शिक्षिकाएं गप्पें मारते हुए बिनाई में व्यस्त हैं। सबके हाथ में सलाईयां। घरवालों के लिए गर्म स्वेटर बनाने का वक्त यहीं निकलता था। हम शुरू के वक्त यानी टिफिन टाइम के पहले पढ़ते जितना पढ़ना होता, फिर तो हम बच्चों की मस्ती...सारा दिन खेल-खेल और बस खेल।
ऐसी ही बहुत सी यादें हैं अपने माध्यमिक स्कूल की। छठी कक्षा तक ऐसी ही पढ़ाई की। बैठने के लिए अपना बोरा और साथ में बस्ता लिए...पहुंच गए स्कूल। जाने पढ़ाई होती थी या हम बस एक बंधे समय में अपना वक्त स्कूल के दे घर लौटते थे।
सरकारी स्कूल में पढ़ने और इस तरीके से पढ़ने के बाद मैं नाज से किसी शिक्षक का नाम नहीं ले पाती मगर इतना जरूर है कि पढ़ाई में ढील मिलने का कारण हम खूब मन से स्कूल जाते और दिन भर खेलते।
हां..टयूशन पढ़ाने करमचंद सर आते थे। जो भी हूं आज, जितना भी हूं...इसका श्रेय उन्हें ही दूंगी। स्कूल से वापस घर आई....बस्ता पटककर बाहर तितिलयां पकड़ने भाग जाती। वक्त का पता नहीं चलता। शाम होने से पहले सर की साईकिल की घंटी बजती। हम अनसुना करते। वो हमारे पास आते और हम धमकाकर, पकड़कर घर लाए जाते और पढ़कर उन पर एहसान करते।
पाठ याद नहीं होने पर छड़ी से मारते...रोओ तो कहते- 'गुरू जी मारे धम-धम..विद्या आए छम-छम'। और किसी दिन पढ़ाई पर ध्यान नहीं दो या गलत जवाब दो तो अपना पसंदीदा मुहावरा दुहराते थे वो।...'कानी गाय के अलगे बथान'। नहीं भूलती बचपन की याद। गांव का माहौल और उस वक्त की पढ़ाई।
वैसे सब बुरा ही नहीं रहा। सातवीं कक्षा में हाई स्कूल गई। वहां की प्रिंसिपल आएशा कुजूर ने अपनी जिद व मेहनत के बल पर हाई स्कूल शुरू किया था, लड़कियों के लिए। हालांकि लड़कियों की उपस्थिति जितनी थी उस मुकाबले न शिक्षक थे...न सुविधा। केवल दो कमरे और बरामदे में बैठाकर कक्षा सात से दस तक की पढ़ाई होती। मगर यूनिफार्म, अनुशासन, पढ़ाई का महत्व, नाटक मंचन आदि सब वहीं सीखा। बहुत ही कम सुविधाओं के बावजूद....दो किलोमीटर पैदल चल कर जाना पड़ता था। शिक्षक कम, बरसात में खपरैल छत से पानी टपटप गिरता, मगर भी...आएशा मैडम की जलाई ज्योत हमारे मन में जलने लगी। पढ़ाई का महत्व समझा। दसवीं के बाद इन्टरमीडिएट...फिर मास्टर डिग्री...समझदार हो गई थी तब तक।
आएशा मैडम..विभा मैडम..अमोल मैडम..बसंती मैडम....बस तो। पूरा स्कूल इन्हीं के कंधों पर था। आएशा मैडम तो आज तक इसी स्कूल से जुड़ी हैं। रिटायरमेंट के बाद भी वो जाती हैं कक्षा लेने। उनके जज्बे के कारण आज गांव में पढ़ाई और उच्चशिक्षा का माहौल है। ऐसे ही कुछ शिक्षकों के बदौलत आज की पीढ़ी इंसान बन रही है।
हालांकि ऐसे लोग बहुत कम हैं और आज जो शिक्षा व्यवसायीकरण हो गया है, मुझे कई कटु अनुभव हुए इन दिनों। अपने और आसपास के बच्चों से जुड़े। मुझे लगता है सरकार के लगातार कार्य करने और सुविधा प्रदान करने के बावजूद सुदूर गांवों में आज भी कुछ ऐसा ही माहौल है। अगर शिक्षक अपना दायित्व सही तरह से निभाएं तो नि:संदेह देश की हालत कुछ और होगी।
इसलिए....मेरे श्रद्धेय...मेरे गुरुजन...आप जहां भी हों....मेरा शत-शत नमन...।
9 comments:
बहुत अच्छा लगा पढ़ कर.पात्रता थी आप में,इसीलिये जो कुठ मिला सार्थक कर लिया !
अच्छे शिक्षक हमेशा स्मृतियों में पथप्रदर्शक की तरह होते हैं .
गुरु को नमन !
स्कूल के दिन की याद दिलाती सुन्दर प्रस्तुति
सामयिक प्रस्तुति के लिए आभार
शिक्षक दिवस की हार्दिक शुभकामना!
interesting...
शिक्षक दिवस पर विशेष - तीन ताकतों को समझने का सबक - ब्लॉग बुलेटिन ब्लॉग जगत मे क्या चल रहा है उस को ब्लॉग जगत की पोस्टों के माध्यम से ही आप तक हम पहुँचते है ... आज आपकी यह पोस्ट भी इस प्रयास मे हमारा साथ दे रही है ... आपको सादर आभार !
बहुत बढ़िया बेहतरीन प्रस्तुति,,,,
शिक्षक दिवस की हार्दिक शुभकामनाए,,,
RECENT POST,तुम जो मुस्करा दो,
school ke vo din bhulaye nahi bhoolate..shikshak diwas ki shubhkamnaye..
Behad khoobsurat.
............
ये खूबसूरत लम्हे...
मुझे भी बहुत कुछ याद आ गया |शायद आपके इस लेख के वजह से |
मेरा ब्लॉग आपे इंतजार मे,समय मिले तो बस एक झलक-"मन के कोने से..."
आभार |
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