अकृतज्ञ नदी और
नारी....
जाने किस
पहाड़ से उतरती है
किस राह
निकलती है
और कहां जाकर
मिलती है.....
अकृतज्ञ
नदी और नारी
ये तो बस
चलती है
बहती है
निरंतर
फिर
नदी किसी सागर में
नारी किसी के आंगन में
मिलकर, बसकर
लहलहा उठती है....
क्या इसे नहीं होता कभी
अपने उद़गम का भान
क्या नहीं बुलाता इसे
अपना जन्मस्थान..
क्या नहीं रोती ये
अपनों से बिछड़कर...
आखिर क्यों कहलाती है
अकृतज्ञ
नदी और नारी........?
15 comments:
बढ़िया भाव ||
वाह कितनी सुन्दर रचना रची है आपने नदी और नारी पर.
नदी अपने उदगम से आगे बढ़ती है,सागर से मिलने को आतुर ... नारी अपने उदगम रिश्तों से,घर से आगे बढ़ती है एक और घर की तलाश में - बनाती रहती है घर,पर बेघर कही जाती है
इसे विषमता को दूर करना होगा। हो भी रहा है।
नदी और नारी को एक रूप में ढालता हुआ बिम्ब बहुत सुन्दर सही तो है नारी भी अपने कर्तव्य का निर्वाह करते हुए कब पीछे मुड़कर देखती है निर्बाध निसंकोच अपना धर्म का पालन करते हुए हमेशा आगे बढती रहती है ठीक एक नदी की भांति
नदी में निरतंरता है
वह अपने उद्गम से निकलती
सागर से मिलती रहती है
अकृतज्ञ तो वे हैं
जो इसे संभाल नहीं पाते
सूख जाती है
सभी को तृप्त करते-करते
नदी।
गजब है शब्दो का चयन , अकृतज्ञ नदी
रश्मी जी,बहुत अच्छी रचना,,,
नदी नारी लक्क्ष एक,पालन करें समान
धर्मों का निर्वाहन करे ,राह करें आसान,,,,,
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bahut acchi lekhni chalai hai ...
नदी और नारी को कितना भी दोष दे ले कोई कृतघ्न ,पर उसके बिना रह भी तो नहीं पाता !
वाह!
प्रतिभा जी बात से पूर्णतः सहमत हूँ।
प्रकृति के साथ नारी का संगम ...बहुत खूब .....
वाह,क्या बात है
बहुत अचछा लिखा है नारी व नदी के पीडा भी एक समान ही हैं
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