Friday, June 8, 2012
भूली-बिसरी यादें.....अब तो खो गया सब
पांच वर्ष की लड़की....पहली बार दिल्ली से गर्मी की छुट़टियां बिताने गांव आती है अपनी मां और बड़े भाई के साथ। आते ही देखा उसने.....लकड़ी के चूल्हे में मां गरम-गरम धुसका {चावल से बनने वाला छोटानागपुरी पकवान) बना रही है। उसने कहा भूख लगी है...मैं भी खाउंगी और तुरंत मिट़टी की जमीन पर रसोई में बैठ गई व गरमागरम धुसके स्वाद लेकर खाने लगी। पहली बार चखी थी उसने गांव की रसोई। उसे ऐसे जमीन पर बैठे देखकर हम सबको शर्म आ रही थी। उस वक्त मैं और मेरे तीन छोटे भाई बहन वहीं मां के पास बैठे थे, उन्हें घेरकर...चूल्हे के पास....अपनी बारी के इंतजार में। मेहमान अचानक आए थे। हमलोगों को बिना किसी तैयारी का मौका दिए हुए।
यह लगभग दो दशक पूर्व से भी ज्यादा की बात है। तब गांव में न एसी था न कूलर। हां....पंखे थे मगर बिजली मेहरबान न थी। घर में मेहमान आए थे। अब कहां बिठाएं...कहां सुलाएं। शाम का वक्त.....फटाफट आंगन में पानी का छींटा देकर चारपाई लगाई....उस पर बिस्तर और पास ही कुछ कुर्सियां भी। उन्हें बाहर खुले में बिठाया हमने। वो लड़की गरिमा....खूबसूरत सी, गोल-मटोल...अपनी बड़ी-बड़ी आंखे आश्चर्य से चौड़ी कर पूरा मुआयना कर रही थी। आंगन में तुलसी का चौरा, जहां दादी रोज सुबह पानी दिया करती थी, वहां शाम का दीपक जल रहा था। बगल में मीठे पानी का कुआं, उसके ठीक पश्चिम में नीम का पेड़। आंगन के एक किनारे मेरे पसंदीदा बेला (मोगरे) के कुछ पौधे....जिस पर सैकड़ों सफेद फूल खिले थे और उसकी खुश्बू से आंगन महक रहा था। उसके बगल में उढ़हुल (जवा पुष्प) के छोटे-छोटे पौधे.....जिस पर रोज कई लाल फूल खिलते थे, जिन्हें सुबह दादी पूजा के लिए तोड़ती थी। घर के पिछवाड़े छोटा सा बगान जहां अमरूद, अनार, शहतूत के पेड़ तो थे ही.....मेहंदी की झाड़, जहां से हर पखवारे पत्तियां ले सील-बट़टे पर पीसकर हम हथेलियों पर रंग चढ़ाते थे। थोड़ी सी जगह में आलू, टमाटर, और मौसमी सब्जियां उपजाते। हर शाम पौधों को पानी देने का जिम्मा हम बच्चों का था।
घर आए उन दोनों बच्चों को मिलाकर हम छह बच्चे....और मस्ती का आलम। हमारी जीवनशैली बिल्कुल अलग। वो दोनों हमें कौतूहल से देख रहे थे और हमलोग उन्हें। उन्हें सप्ताह भर रहना था यहां। खास दिल्ली से यहीं के लिए आए थे। बातचीत का दौर चलता रहा। अब खाना खाने के बाद सोने की तैयारी। बिजली इतनी नहीं रहती कि कमरे में रात गुजारे। वैसे भी हमलोग गर्मियों में छत पर ही सोते थे। फिर से एक बार पानी का छीटा देकर छत बुहारा गया और बिस्तर लगा। हम बच्चों के लिए एक पंक्ति में और मां व आंटी के लिए थोड़ी दूर में.....ताकि हमारे शोरगुल से उन्हें परेशानी न हो। तब तक हमलोग घुलमिल गए थे। खूब गप्प....कहानियां...और तारों का परिचय्.....ये पुच्छल.....वो रहा सप्तऋषि....और उस तरफ ध्रुव तारा.......धत्त्त्त्त....वो तो सुबह निकलता है।
मैनें पहली बार सिंड्रेला की कहानी उसी रात आंटी के मुंह से सुनी.....और गरिमा व गौरव ने ग्राम देवता की कहानी....जो मैंने दादी से सुनी थी, उन्हें डराने के ख्याल से सुनाया। इसी तरह रात गुजरी। सुबह पांच बजे पड़ोस के आम के पेड़ से रात भर टपके आमों को चुनने हमलोग टोकरी लेकर भागे.....और पानी भरी बालटी में घंटे भर भिगोया, फिर खाया...नहीं चूसा..रस वाला आम होता था । दूसरे दिन नदी-तालाब की सैर और रात भर खुले छत में देर तक बतियाना और सोना......। सारा दिन गांव की खाक छानना...मां के बनाए नये-नये व्यंजन खाना और रात.....वो तो अपनी थी। वो लोग सप्ताह भर रूके। फिर तो लगभग सात वर्ष तक हर गर्मी में वे हमारे गांव आते और ग्राम्य जीवन का आनंद उठाते।
अचानक ये बीस बरस पहले की यादें क्यों......आप भी सोच में पड़ गए होंगे न। ये यादें उस दर्द की उपज है जो हम भूल-बिसर गए हैं....। गर्मियों में गांव जाना हुआ इस बार। कुछ भी तो नहीं बचा अब। न वो खपरैल की रसोई....न लकड़ी का चूल्हा। न आंगन.....न ठंडी हवा। बस बूढ़ा नीम खड़ा है उदास सा.....कुएं के किनारे। बेला के पौधे खत्म.....सीमेंटेड आंगन। चारपाई एक भी नहीं बची.....कि उस पर सोकर पुरानी यादें ताजा करूं। अब तो पलंग है और कूलर.....गैस चूल्हे में खाना बनता है। अब भी छत पर बिस्तर लगता है....हमलोगों के जाने पर। मगर वो उत्साह नहीं....सारी रात नहीं सोता कोई। बस थोड़ी देर.....न उतना स्वच्छ आकाश है अब न ही बदन सिहराने वाली हवा। तब तो आधी रात ढलते ही एक चादर की जरूरत पड़ती थी। पता नहीं मन का भ्रम है या सच.....अब तो तारे भी चमकीले नहीं लगते वैसे। पेड़ से गिरे आमों को नहीं चुनता कोई....बाजार में इतने जो मिलते हैं..। तब तो आम-जामुन की डालें हिलाकर हमलोग फल खाया करते थे। तालाब किनारे खजूर के पेड़ पर ढेले चला फल गिराते और खाते। बाल्टी-रस्सी से कुएं का पानी खींचकर नहाते। ठंडा-ठंडा। गर्मी की लहकती दोपहर को भी ठंडा पानी.....तब सिनटेक्स की टंकियां कहां थी, कि देर हुई तो नहाने के लिए सोचना पड़ेगा।
जो भी था......कुछ कमी..कुछ आभाव, मगर बहुत खूबसूरत था। याद रह जाने लायक....उम्र भर यादों में जुगाली करने लायक। अब के बच्चों को यह नसीब कहां....कंप्यूटर के जमाने में चांद-तारों से कौन बात करता है....एसी व कूलर की उपलब्धता ने पेड़ की छांव छीन ली। अब गांव वाले भी शहरी सुख-सुविधा में जीना चाहते हैं। अब गांव वाले भी शहरी बनने की होड़ में ....उस कच्चे पन का...अपनेपन का सुख भी भूल गए है। अब चाहकर भी संभव नहीं वो जीवन जीना.......। दो दिन पहले पर्यावरण दिवस मनाया हमलोगों ने। पूरा देश गर्म हवा के थपेड़ों से झुलस रहा है। यही हाल रहा तो तपती गर्मी, बेहिसाब बारिश और कंपकंपाती ठंड में इंसानी जीवन काफी दुष्कर हो जाएगा। अगर हम प्रकृति का ख्याल रखें...तो कम से कम खुली व स्वच्छ हवा में तो सांस ले पाएंगे हम..........नहीं क्या ????
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15 comments:
आंगन में तुलसी का चौरा, जहां दादी रोज सुबह पानी दिया करती थी, वहां शाम का दीपक जल रहा था। बगल में मीठे पानी का कुआं, उसके ठीक पश्चिम में नीम का पेड़। आंगन के एक किनारे मेरे पसंदीदा बेली के कुछ पौधे....जिस पर सैकड़ों सफेद फूल खिले थे और उसकी खुश्बू से आंगन महमहा रहा था। रश्मी आप ने जो अपनी यादो को सहेज कर अपनी परम्पराओं , अपनी संस्कृति और मूल्यों को सहेजा है वो आप के लेखन में यह झलकता है की आपको आज भी अपने तुलसी के विरवे से उतना ही प्यार है जितना बचपन में था वो बारिश की बूंदे या गाँव के मदमस्त वातावरण को आज भी आप ने बहुत सहेज कर रखा है जो आपके इस कहानी में परिलक्षित होता है |अपनी संस्कृति को सहेजने के लिए आपको बहुत साधू वाद दोस्त .....................
बहुत कुछ छूटा हमसे गाँव का !
खैर हम तो वैसा माहौल बना लेते है कभी कभी शहर में भी , चूल्हा जला कर , पेड पौधे लगाकर !
laga jaise koyi kahani pad raha hun.....bahut sookshm chitran ....man ganv ki galiyon main bhatakane laga.
बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि-
आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल शनिवार (09-06-2012) के चर्चा मंच पर भी होगी!
bahut sundar aur sarthak
बस,,,,,,,,,,,,यादें बच रह जाती हैं...
यादें जब घेर लेती हैं तो यादों से बाहर आने का मन नहीं करता है. आपने तो गाँव ही पहुंचा दिया
वाह ...एक संवेदन्शील रचना के लिये बहुत बहुत बधाई आपको ...
मधुर स्मृतियाँ
यादों को ताजा करती सुंदर स्मृतियाँ,,,,
RESENT POST,,,,,फुहार....: प्यार हो गया है ,,,,,,
अब तो ये सब किसी दूसरी दुनिया की बातें लगती हैं !
मार्मिक,दिल को छूने वाले संस्मरण,शब्दों का जादू भी.
Bahot hi thandi hawa jaisi mehsoos hui yeh gaatha padhkar
कितनी सुकून भरी जिंदगी थी !! कमोबेस सबकी ऐसी ही कहानी सबकी है |
लेकिन क्या हमारी अगली पीढ़ी के पास भी होगी ऐसी ही सुहानी कहानी??
डर लगता है , कहाँ जा रहे हैं हम ??
कहाँ जाकर थमेगी तरक्की कि ये अंधी दौड़??
बहुत सुंदर अभिव्य्क्ती.
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