Saturday, June 2, 2012

पटनीटाप.... प्रकृति‍ की गोद में (संस्‍मरण)

भाग-3


...कटरा से नि‍कलकर हमलोगों की योजना थी पटनीटाप जाने की। टैक्‍सी बुक की तीन दि‍नों के लि‍ए और पहाड़ों पर बसी शेरोवाली को पलट-पलट कर देखते हम पटनीटाप की ओर नि‍कल पड़े। कटरा से इसकी दूरी करीब 85-90 कि‍लोमीटर की है। यह श्रीनगर जाने के रास्‍ते में पड़ने वाला मनोरम हि‍ल स्‍टेशन है। जब मैं कुछ वर्षों पहले श्रीनगर गई थी तब यहां थोड़ी देर के लि‍ए रूकी थी। तभी मन को भा गई थी यह जगह। सोचा था्.....कभी रहने जरूर आउंगी। और यह मौका मि‍ल गया हमें।
कटरा से थोडा आगे बढ़े तो एक से बढ़कर एक खूबसूरत दश्‍य सामने आने लगा। पहाड़ी रास्‍ता...गाड़ी की रफ़तार धीमी मगर चारों ओर अपूर्व सुदंरता। कटरा वाली गर्मी भी खत्‍म हो गई। हम मौसम व दश्‍य का आनंद लेने लगे। पूरे रास्‍ते अनार के पेड़ थे जि‍स पर लाल-लाल फूल खि‍ले थे। ड्राइवर ने बताया कि‍ यहां अनार की चटनी बहुत स्‍वादि‍ष्‍ट बनाई जाती है। सफर के लगभग दो घंटे से बाद हमलोग कुद नामक जगह पहुंचे। छोटी सी जगह। यहां कि‍ मि‍ठाइयां मशहूर है। पास-पास कई दुकान थे मि‍ठाइयों के। हमने भी चाय पकौड़े खाने के इरादे से गाड़ी रूकवाई। तब तक आकाश में काले मेघ घहराने लगे थे। हम चाय पीने उतरे तो टपटप बारि‍श शुरू.......और ठंड इतनी कि‍ सि‍हरन होने लगी। कि‍सी ने गरम कपड़े नहीं पहने थे। मगर मजा भी आ रहा था। दोनों बच्‍चे गाड़ी से उतरे और ठंढ से घबराकर फौरन दौड़कर उपर चढ़ गए। टपटप बारि‍श में भी हम गर्मागर्म गुलाब जामुन का स्‍वाद लेने से खुद को नहीं रोक पाए। जल्‍दी से चाय के साथ गर्म पकौड़ि‍यां खाई और दौड़कर गाड़ी में जा बैठे। लो.....हो गई जोरदार बारि‍श शुरू। प्रसन्‍नता से हमलोग उछलने लगे। कार का शीशा उतारकर बौछारों का आनंद लेते...फि‍र भीगने लगते तो शीशा उपर। बस 12 कि‍लामीटर ही तो था वहां से पटनीटाप। पहुंचे तो बारि‍श जारी थी। हम सीधे चढ़ने लगे कि‍ उपर ही कोई होटल लेंगे। तभी रास्‍ते में दूसरे सैलानी मि‍ले। उन्‍होंने बताया कि‍ उपर सारे होटल भरे हैं। नीचे ही कोई देख लें। पर मुझे तो उपर ही जाने की जि‍द थी। मैंने कहा ट्राई करते हैं....आगे कि‍स्‍मत..। खैर हमें बहुत खूबसूरत और आरामदायक होटल मि‍ल गया। हमने समान रखा और घूमने नि‍कल पड़े। उम्‍मीद से ज्‍यादा ठंढ़ पड़ रही थी वहां। हम ठि‍ठुरते रहे....मगर पैदल चलते रहे। लंबे-लबे देवदार के दरख्‍त.;जैसे आस‍मान छूने की ख्‍वाहि‍श लि‍ए बढ़ते ही जा रहे हों। हमलोग गर्म कपड़े ज्‍यादा नहीं ले गए है। लगा....और लाना बेहतर होता।
हमारे होटल से बाहर नि‍कलकर एक गुमटीनुमा टी स्‍टाल थी। एक 15-16 साल का मुन्‍ना नाम का लड़का चलाता था उसे। हमें देखकर कहने लगा.....आओ साहब...होटल की मंहगी चाय छोड़कर यहां पी लो। अच्‍छा लगेगा ।वाकई्.... भाप उठती गरम चाय पि‍लाई उसने। इस बहाने थोड़ी बातचीत भी हो गई। उसे ग्राहकों का दि‍ल बहलाने का हुनर आता था। वह वहीं से पाकि‍स्‍तान और गुलमर्ग की चोटी दि‍खाने लगा हमें। हमने भी हंसते-हंसते उसकी हां में हां मि‍लाई।
चूंकि‍ गर्म कपड़े कम थे इसलि‍ए मैनें सोचा कि‍ अभि‍रुप को जरूरत पड़ेगी...कुछ खरीद लूं। मगर वहां दुकान के नाम पर मात्र एक कश्‍मीरि‍यों की दुकान थी जहां शाल व कश्‍मीरी कढ़ाई वाले सलवार-कमीज मि‍ल रहे थे...मगर स्‍वेटर नहीं। और कोई दूसरी दुकान नहीं थी। हां एक छोटी गुमटी और थी जहां लकड़ी से बने समान ‍बि‍क रहे थे.....जैसे..सांप, छि‍पकि‍ली,संदूक, अंडे आदि। सभी लकड़ी के बने। फि‍र तो दुकान वाले दादा जी और अभि‍रुप की ऐसी मि‍त्रता हुई कि‍ वापसी में उनके दुकान के लगभग सारे खि‍लौनों की एक-एक पीस कर हमारे बैग में समाते गए।
दूसरे दि‍न सुबह उठकर हमलोग नाग देवता के मंदि‍र गए। माना जाता है कि‍ यह सदि‍यों पुराना मंदि‍र है और यहां मांगी जाने वाली मन्‍नत जरूर पूरी होती है। हां....मंदि‍र के अंदर स्‍त्रियों का प्रवेश नि‍षेध था। बहरहाल...हमलोग वहां दर्शन कर निकले। वहां एक छोटा मार्केट था। दुकानदारों ने 'चिंगू' गर्म कंबल खरीदने की काफी जि‍द की मगर हमें नहीं लेना था, सो नहीं ली।
यहां से नि‍कलकर अब हमें सनासर जाना था जो करीब 21 कि‍लोमीटर की दूरी पर था। पूरे रास्‍ते मन मोहने वाले दश्‍य। लंबे-लंबे चीड़ व देवदार के पेड़। पतली सड़क...थोड़ी-थोड़ी दूर पर पहाड़ों से नि‍कलकर गि‍रने वाला पतला झरना...जि‍से उपयोग में लाने के लि‍ए एक पतली टोटी लगाकर नल के जैसा रूप दे दि‍या गया था। रास्‍ते में आबादी नाममात्र की थी। हमें कुछ घर मि‍ले....जि‍सके छत मि‍ट़टी के थे। नीचे पत्‍थरों की दीवार। बहुत अच्‍छा लगा। पता चला लोग वहां रहते भी हैं और मवेशि‍यो के लि‍ए भी ऐसे घर बनाए जाते हैं।
रास्‍ता बहुत सुंदर। पतली मगर साफ सड़क....स्‍वच्‍छ हवा...नीले आकाश पर सफेद बादल का टुकड़ा....दूर पहाडियां और सबसे पीछे वाली पहाड़ पर बर्फ चांदी सी चमक रही थी। हम सब खुशी से शोर मचाने लगे। जब सफेद बर्फ के पहाड़ पर धूप पड़ती....तो सोने सा जगमग करने लगता।
वहां पूरे जंगल में मैंने देखा....बि‍जली के खंभे लगे थे। अर्थात वि‍घुत व्‍यवस्‍था दुरूस्‍त थी। ऐसा रमणीय दश्‍य था कि‍ आंखें ही नहीं हट रही थी। तभी एक बस्‍ती जैसी जगह आई। कुछ घर थे वहां। हमारी गाड़ी निकली तो कुछ बच्‍चे चि‍ल्‍लाते हुए पीछे दौड़े। ध्‍यान दि‍या.....तो वे कह रहे थे कि‍ कुछ खाने की चीज हो तो देते जाओ। सच...बहुत बुरा लगा हमें। हमारे पास ऐसी कोई खाद्य सामग्री नहीं थी। मालूम होता तो कुछ नीचे से साथ ले लेते। दरअसल हम मैदान वालों को पहाड़ बहुत आकर्षि‍त करता है मगर पहाड़ का जीवन वाकई पहाड़ जैसा होता है। खाने-पीने की सामग्री सब नीचे से लानी पड़ती है। हालांकि‍ अपने खाने योग्‍य कुछ अनाज, दाल व सब्‍जि‍यां वो खुद उगा लेते हैं....जो हमें दि‍ख भी रहा था। मगर ये पर्याप्‍त नहीं होता।
मन थोड़ा मलि‍न हुआ..पर सोचा कि‍ वापसी के वक्‍त उन बच्‍चों के लि‍ए कुछ खरीदकर ले चलेंगे।
ऐसे ही रास्‍ते का आनंद लेते हम सनासर पहुंचे। देखा....बहुत ही मनोरम स्‍थल है। कई सरकारी काटेज भी बने हैं रहने के लि‍ए। चारों तरफ चीड़ व देवदार के पेड़....दूर से फूलों का बागीचा नजर आ रहा था। रंग-बि‍रंगे फूल...चारों ओर हरि‍याली...दूर एक झील...उसके बगल से रास्‍ता गया है। मनमोहक इतना, कि‍ लगा....यही रह जाए हम। हमलोग घूमने लगे। हालांकि‍ धूप थी मगर दरख्‍तों की छांव ने उसका असर छीन लि‍या था। हम झील कि‍नारे चलते-चलते नाग देवता के मंदि‍र जा पहुंचे। उसके बाद एक लवर्स प्‍वांइट आया। यहां इको साउंड होता था। मैं जोर से चि‍ल्‍लाई....प्रति‍ध्‍वनि‍ में मेरी ही आवाज वापस आई। सच.....बड़ा अच्‍छा लगा। यहां अभि‍रुप ने घुडसवारी की। मस्‍त होकर घोड़े का आनंद लि‍या। इसी दौरान सनासर की खूबसूरत वादि‍यों में ग्‍यारह-बारह वर्ष की एक बच्‍ची मि‍ली। अपनी गाय के लि‍ए घास काटते हुए। पास गई तो शरमाने लगी। नाम बताया- उर्मिला देवी। पूछा-शादी हो गर्इ क्‍या.....तो और शरमा गई। मुझे बहुत अच्‍छी लगी। स्‍कूल में पढ़ती है..बताया।
वहां रंग-बि‍रंगे मौसमी फूल, गेंदे, गुलाब और कई तरह के फूल थे। मुझे कई ति‍तलि‍यां नजर आई वहां। पता चला थोड़े दि‍नों बाद यह पूरी जगह फूलों से भर जाती है। तब झील की खूबसूरती और देखने लायक होती है। उंचे पेड़ के पीछे से झांकता सफेद बादल का टुकड़ा.....अवि‍‍स्‍मरणीय बनाता है सब कुछ। हरी-हरी घास पर भेड़े चर रही थी। दूर बादल का टुकड़ा पेड़ के पीछे से हमें झांक कर देख रहा था। मन ही मन मैं गाने लगी......'मन कहे रूक जा रूक जा....यहीं पे कहीं'
मगर लौटने का वक्‍त हो रहा था। अंधेरा होने पर पहाड़ी रास्‍ते पर चलना दुष्‍कर हो जाता है। हम वहां से वापसी के लि‍ए चल पड़े। सूरज धीरे-धीरे नीचे जा रहा था। रास्‍ते में चरवाहे अपनी भेड़ों के साथ वापस लौट रहे थे। ढेर सारी भेड़ें और पीछे हाथ में डंडे लि‍ए मस्‍त चाल से चलते चरवाहे। हमारी गाड़ी धीरे-धीरे आगे बढ़ रही थी। तभी मैंने देखा एक बूढ़ी औरत अपनी भेड़ों को हांकते आ रही थी। उन्‍होंने मुझे देखा। और मैंने देखा कि‍ मेरे हाथ में कैमरा देखकर उनकी आंखों में चमक आ गई है। जी में आया....ले लूं फोटो.....कैमरा सीधा कि‍या तो ये अम्‍मां भी तन कर खड़ी हो गई। खींच ली मैने तस्‍वीर। अब वो अम्‍मा हमेशा याद रहेगी मुझे।
रास्‍ते में नत्‍था टाप आया। यहां से पूरे पहाड का वि‍हंगम दृश्‍य नजर आ रहा था। उंची-उंची पहाड़ि‍यां...दूर नीचे पेड़ों का झुरमुट..;मस्‍त बयार, बर्फ बि‍छी चोटि‍यों को छूता आसमान......नयनाभि‍राम दृश्‍य,मनमोहक....।
हमलोग घंटे भर प्रकृति‍ के साथ रूके। उसके बाद चल पड़े अपने ठि‍काने की ओर..।
अब शाम अंधेरी रात में बदल रही थी। पहाड़ों पर शाम बहुत देर से होती है और बेहद खूबसूरत भी। मन करता है......बादलों की लुकाछि‍पी और लंबे दरख्‍त से छनकर आती धूप देखती रहूं। जब आसमान में कई रंग होते हैं तो पीछे से बर्फ की चोटि‍यां झांकती है तो मन.......हवा के साथ कुलांचे भरने लगता है। यूं लगता है जैसे इतना नीला आसमां तो कहीं और देखा ही नहीं। मगर वापस तो लौटना ही था। सभी दृश्‍य को आंखों में भर हम लौट आए होटल। बीच में एक बच्‍चों के पार्क में गए जहां कई झूले लगे थे।
बस आज की रात.....कल हमलोगों को लौटना था। सुबह जल्‍दी नींद खुली। बाहर देखा.....सुंदर समां...कौओं की कांव-कांव। बरबस मुझे फि‍ल्‍म 'झूठ बोले कौआ काटे' की याद आ गई। उसमें ऐसे ही कौए थे। हमारे यहां से थोड़े अलग... ज्‍यादा काले, कुछ लंबे। तभी बंदरों पर नजर पड़ी। चि‍ल्‍लाकर बच्‍चों को दि‍खाया। फि‍र सुबह की सैर को नि‍कल पड़ी। इस ख्‍याल से कि‍ अब जाने इतनी हसीन वादि‍यों में दुबारा आने का मौका कब ‍मि‍ले।
दूर तक पेड़ों की छांव में सुनहरी धूप का आनंद लेती चलती गई। बड़ी खि‍ली-खि‍ली सी थी धूप। सड़क कि‍नारे काफी देर बैठकर देखती रही। घोड़े वाले सैर करने के लि‍ए पूछते रहे। मगर......जो आनंद प्रकृति‍ की गोद में र्है वो और कहां। वापसी में उसी मुन्‍ने चाय वाले के स्‍टाल में चाय पी...थोड़ी बात की। अगली बार आने का उससे ज्‍यादा खुद को भरोसा दि‍लाया और समान समेटने चल पड़ी।
दोपहर को पटनीटाप छोड जम्‍मू की ओर नि‍कल चले। 20 कि‍लामीटर दूर आते ही गर्मी लगने लगी। जम्‍मू तो तप रहा था। वहां रघुनाथ मंदिर में दर्शन कि‍ए और रेलवे स्‍टेशन। वहां से दिल्‍ली का सफर फि‍र राजधानी से 19 की सुबह वापस अपने घर। ढेर सी यादों को संजोये........।

*****************समाप्‍त ************************

4 comments:

मुकेश पाण्डेय चन्दन said...

रश्मि जी , बहुत ही मनमोहक पोस्ट ! काश कुछ दिन पहले पढने मिली होती , तो मैं भी वैष्णो देवी के दर्शन के बाद जम्मू में ३ दिन न रुक कर पटनीटॉप जरुर जाता ! चलिए आपके माध्यम से घूम लिया , अगली बार जरुर प्रोग्राम बनाऊंगा !

सदा said...

बहुत ही अच्‍छा यात्रा वृतांत ... सहज ही सजीव चित्रण हो उठा ...

धीरेन्द्र सिंह भदौरिया said...

पटनीटाप....यात्रा की बहुत खुबशुरत प्रस्तुति,,,,,,,

RESENT POST ,,,, फुहार....: प्यार हो गया है ,,,,,,

Chandu said...

सुना था कश्मीर को धरती का स्वर्ग कहा जाता है | अब विश्वास भी हो गया | आपके यात्रा वृतांत ने सबकुछ जैसे जीवंत कर दिया आँखों के सामने |