चवन्नी यानी 25 पैसे यानी चार आना को हमारे बीच से गए आज एक साल हो गए। पिछले वर्ष 30 जून को ही इसने हमें अलविदा कहा था। जाने किसी को उसकी याद आती है कि नहीं...पर मुझे बहुत आती है। दोस्तों के बीच कभी यह जुमला बहुत चलता था....क्या चवन्नी मुस्कान दे रहे हो। मैं तो बचपन में अपने पाकेट मनी के रूप में मिलने वाले पैसे का विभाजन चवन्नी के हिसाब से ही करती थी। एक समय था कि ये गाना भी खूब चलता था.....राजा दिल मांगे चवन्नी उछाल के.....। अब कहां कोई गा पाएगा यह गाना ? गाएगा तो इसका मतलब भी आज की पीढ़ी समझ नहीं पाएगी। अब पैदा होने वाले बच्चों को तो चवन्नी के बारे में कुछ पता नहीं होगा। मैंने तो ढेर सारे सिक्के याद की तौर पर सहेज कर रख लिए हैं। अपने बचपन में क्या-क्या नहीं खरीदती थी इस 25 पैसे से। एक दोना जामुन....एक दोना बेर....मिल्क आइसक्रीम....तब आज के तीन रुपये में एक मिलने वाला समोसा भी एक चवन्नी में मिल जाता था। थोड़े कम हैसियत वाले को भी चवन्नी छाप कहकर पुकारा जाता था....पीठ पीछे।
मगर डालर के मुकाबले पैसे के अवमूल्यन ने इसकी उपयोगिता ही समाप्त कर दी....लिहाजा सरकार ने इसे बंद कर दिया। एक रुपये के चौथे हिस्से की उपयोगिता नहीं रही। अब रुपये के नीचे कुछ मिलता नहीं है। महंगाई सर चढ़ कर नाच रही है। किशोर दा के इस प्रसिद़ध गीत की उपयोगिता भी पर प्रश्नचिन्ह लग गया.....दे दे मेरा पांच रुपया बारह आना...अभी आठ आने का अस्तित्व तो है....पर जाने और कितने दिन ?????
Saturday, June 30, 2012
Wednesday, June 27, 2012
मैग्नोलिया और तुम
मैग्नोलिया के फूल और तुम
पर्यायवाची हो जैसे....
जब भी
सफेद फूलों से निकलने वाली खुश्बू
मुझ तक आती है
मेरी आंखों में
तुम और मैग्नोलिया
साथ-साथ झिलमिलाते हो...
सफेद...खूबसूरत..उज्जवल
जिसकी सुगंध
हफ़तों नहीं उतरती जेहन से
ऐसा सुंदर फूल
और ऐसे अतुलनीय तुम
याद है न तुम्हें
मैग्नोलिया का वह पेड़
जहां से हर मुलाकात की याद स्वरूप
एक फूल अपने हाथों से तोड़
दिया करते थे मुझे
अगली मुलाकात तक के
अहसासों को संजोने के लिए
सुनो....इन दिनों
तुम और मैग्नोलिया दोनों
मुझे बहुत याद आते हो..
बहुत याद आते हो.......
पर्यायवाची हो जैसे....
जब भी
सफेद फूलों से निकलने वाली खुश्बू
मुझ तक आती है
मेरी आंखों में
तुम और मैग्नोलिया
साथ-साथ झिलमिलाते हो...
सफेद...खूबसूरत..उज्जवल
जिसकी सुगंध
हफ़तों नहीं उतरती जेहन से
ऐसा सुंदर फूल
और ऐसे अतुलनीय तुम
याद है न तुम्हें
मैग्नोलिया का वह पेड़
जहां से हर मुलाकात की याद स्वरूप
एक फूल अपने हाथों से तोड़
दिया करते थे मुझे
अगली मुलाकात तक के
अहसासों को संजोने के लिए
सुनो....इन दिनों
तुम और मैग्नोलिया दोनों
मुझे बहुत याद आते हो..
बहुत याद आते हो.......
Monday, June 25, 2012
रूके कदम....
उस मोड़ पर
जहां ठहरकर
हम दो
विपरित ध्रुव की तरफ
मुड़ने ही वाले थे...
एक दूसरे को
अलविदा
कहने से पहले
एक बार फिर से
भरपूर
मगर डबडबाई आंखों से
देखना चाहा हमने
तभी
वेगवान
आंसुओं के प्रवाह ने
तोड़ दी अपनी हदें
.....बरस पड़ी
और
विदा के लिए
उठे दो हाथ
अचानक आबद्ध हो उठे
सारी दूरियों को तज
एक-दूजे में जा सिमटे....
जहां ठहरकर
हम दो
विपरित ध्रुव की तरफ
मुड़ने ही वाले थे...
एक दूसरे को
अलविदा
कहने से पहले
एक बार फिर से
भरपूर
मगर डबडबाई आंखों से
देखना चाहा हमने
तभी
वेगवान
आंसुओं के प्रवाह ने
तोड़ दी अपनी हदें
.....बरस पड़ी
और
विदा के लिए
उठे दो हाथ
अचानक आबद्ध हो उठे
सारी दूरियों को तज
एक-दूजे में जा सिमटे....
Tuesday, June 19, 2012
.....ख्वाहिश है
Saturday, June 16, 2012
क्षणिकाएं........कुछ अलग-अलग सा
,
1.कैसे बताउं कि साथ मेरे क्या-क्या मुश्किलें हैं...
तेरे साथ जीना मुमकिन नहीं, तेरे बगैर जीना मुश्किल है.....
2.कुछ उनकी वफा पे था ज्यादा गुमां
कुछ अपने मुकद़द़र की थी यही मंजूरी
हम बेनिशां मंजिल की जानिब चलते रहे
कुछ न दिया जिंदगी ने
थी उनकी यही रहबरी....
3.बहुत मगरूर हो उठे हैं
हम आपको पाकर
किसी और का नाम भी नहीं लाते
हम अपनी जबां पर.....
4.हममें-तुममे न कोई करार है
और न ही प्यार है
फिर भी
हर रोज जब
ढलती है शाम
और
सारे पंक्षी
लौटने लगते हैं
अपने बसेरों की ओर
तब न जाने क्यों
दिल को लगता है
तुम्हारा ही इंतजार है...........
5.खोए-खोए से लगे वो आज
आवाज में थी थोड़़ी उदासी
किस गम ने फिर जकड़ा है उनको
जाने किस बात पर छाई है उदासी

1.कैसे बताउं कि साथ मेरे क्या-क्या मुश्किलें हैं...
तेरे साथ जीना मुमकिन नहीं, तेरे बगैर जीना मुश्किल है.....
2.कुछ उनकी वफा पे था ज्यादा गुमां
कुछ अपने मुकद़द़र की थी यही मंजूरी
हम बेनिशां मंजिल की जानिब चलते रहे
कुछ न दिया जिंदगी ने
थी उनकी यही रहबरी....
3.बहुत मगरूर हो उठे हैं
हम आपको पाकर
किसी और का नाम भी नहीं लाते
हम अपनी जबां पर.....
4.हममें-तुममे न कोई करार है
और न ही प्यार है
फिर भी
हर रोज जब
ढलती है शाम
और
सारे पंक्षी
लौटने लगते हैं
अपने बसेरों की ओर
तब न जाने क्यों
दिल को लगता है
तुम्हारा ही इंतजार है...........
5.खोए-खोए से लगे वो आज
आवाज में थी थोड़़ी उदासी
किस गम ने फिर जकड़ा है उनको
जाने किस बात पर छाई है उदासी
Wednesday, June 13, 2012
तो क्या हुआ.....
Friday, June 8, 2012
भूली-बिसरी यादें.....अब तो खो गया सब

पांच वर्ष की लड़की....पहली बार दिल्ली से गर्मी की छुट़टियां बिताने गांव आती है अपनी मां और बड़े भाई के साथ। आते ही देखा उसने.....लकड़ी के चूल्हे में मां गरम-गरम धुसका {चावल से बनने वाला छोटानागपुरी पकवान) बना रही है। उसने कहा भूख लगी है...मैं भी खाउंगी और तुरंत मिट़टी की जमीन पर रसोई में बैठ गई व गरमागरम धुसके स्वाद लेकर खाने लगी। पहली बार चखी थी उसने गांव की रसोई। उसे ऐसे जमीन पर बैठे देखकर हम सबको शर्म आ रही थी। उस वक्त मैं और मेरे तीन छोटे भाई बहन वहीं मां के पास बैठे थे, उन्हें घेरकर...चूल्हे के पास....अपनी बारी के इंतजार में। मेहमान अचानक आए थे। हमलोगों को बिना किसी तैयारी का मौका दिए हुए।
यह लगभग दो दशक पूर्व से भी ज्यादा की बात है। तब गांव में न एसी था न कूलर। हां....पंखे थे मगर बिजली मेहरबान न थी। घर में मेहमान आए थे। अब कहां बिठाएं...कहां सुलाएं। शाम का वक्त.....फटाफट आंगन में पानी का छींटा देकर चारपाई लगाई....उस पर बिस्तर और पास ही कुछ कुर्सियां भी। उन्हें बाहर खुले में बिठाया हमने। वो लड़की गरिमा....खूबसूरत सी, गोल-मटोल...अपनी बड़ी-बड़ी आंखे आश्चर्य से चौड़ी कर पूरा मुआयना कर रही थी। आंगन में तुलसी का चौरा, जहां दादी रोज सुबह पानी दिया करती थी, वहां शाम का दीपक जल रहा था। बगल में मीठे पानी का कुआं, उसके ठीक पश्चिम में नीम का पेड़। आंगन के एक किनारे मेरे पसंदीदा बेला (मोगरे) के कुछ पौधे....जिस पर सैकड़ों सफेद फूल खिले थे और उसकी खुश्बू से आंगन महक रहा था। उसके बगल में उढ़हुल (जवा पुष्प) के छोटे-छोटे पौधे.....जिस पर रोज कई लाल फूल खिलते थे, जिन्हें सुबह दादी पूजा के लिए तोड़ती थी। घर के पिछवाड़े छोटा सा बगान जहां अमरूद, अनार, शहतूत के पेड़ तो थे ही.....मेहंदी की झाड़, जहां से हर पखवारे पत्तियां ले सील-बट़टे पर पीसकर हम हथेलियों पर रंग चढ़ाते थे। थोड़ी सी जगह में आलू, टमाटर, और मौसमी सब्जियां उपजाते। हर शाम पौधों को पानी देने का जिम्मा हम बच्चों का था।
घर आए उन दोनों बच्चों को मिलाकर हम छह बच्चे....और मस्ती का आलम। हमारी जीवनशैली बिल्कुल अलग। वो दोनों हमें कौतूहल से देख रहे थे और हमलोग उन्हें। उन्हें सप्ताह भर रहना था यहां। खास दिल्ली से यहीं के लिए आए थे। बातचीत का दौर चलता रहा। अब खाना खाने के बाद सोने की तैयारी। बिजली इतनी नहीं रहती कि कमरे में रात गुजारे। वैसे भी हमलोग गर्मियों में छत पर ही सोते थे। फिर से एक बार पानी का छीटा देकर छत बुहारा गया और बिस्तर लगा। हम बच्चों के लिए एक पंक्ति में और मां व आंटी के लिए थोड़ी दूर में.....ताकि हमारे शोरगुल से उन्हें परेशानी न हो। तब तक हमलोग घुलमिल गए थे। खूब गप्प....कहानियां...और तारों का परिचय्.....ये पुच्छल.....वो रहा सप्तऋषि....और उस तरफ ध्रुव तारा.......धत्त्त्त्त....वो तो सुबह निकलता है।
मैनें पहली बार सिंड्रेला की कहानी उसी रात आंटी के मुंह से सुनी.....और गरिमा व गौरव ने ग्राम देवता की कहानी....जो मैंने दादी से सुनी थी, उन्हें डराने के ख्याल से सुनाया। इसी तरह रात गुजरी। सुबह पांच बजे पड़ोस के आम के पेड़ से रात भर टपके आमों को चुनने हमलोग टोकरी लेकर भागे.....और पानी भरी बालटी में घंटे भर भिगोया, फिर खाया...नहीं चूसा..रस वाला आम होता था । दूसरे दिन नदी-तालाब की सैर और रात भर खुले छत में देर तक बतियाना और सोना......। सारा दिन गांव की खाक छानना...मां के बनाए नये-नये व्यंजन खाना और रात.....वो तो अपनी थी। वो लोग सप्ताह भर रूके। फिर तो लगभग सात वर्ष तक हर गर्मी में वे हमारे गांव आते और ग्राम्य जीवन का आनंद उठाते।
अचानक ये बीस बरस पहले की यादें क्यों......आप भी सोच में पड़ गए होंगे न। ये यादें उस दर्द की उपज है जो हम भूल-बिसर गए हैं....। गर्मियों में गांव जाना हुआ इस बार। कुछ भी तो नहीं बचा अब। न वो खपरैल की रसोई....न लकड़ी का चूल्हा। न आंगन.....न ठंडी हवा। बस बूढ़ा नीम खड़ा है उदास सा.....कुएं के किनारे। बेला के पौधे खत्म.....सीमेंटेड आंगन। चारपाई एक भी नहीं बची.....कि उस पर सोकर पुरानी यादें ताजा करूं। अब तो पलंग है और कूलर.....गैस चूल्हे में खाना बनता है। अब भी छत पर बिस्तर लगता है....हमलोगों के जाने पर। मगर वो उत्साह नहीं....सारी रात नहीं सोता कोई। बस थोड़ी देर.....न उतना स्वच्छ आकाश है अब न ही बदन सिहराने वाली हवा। तब तो आधी रात ढलते ही एक चादर की जरूरत पड़ती थी। पता नहीं मन का भ्रम है या सच.....अब तो तारे भी चमकीले नहीं लगते वैसे। पेड़ से गिरे आमों को नहीं चुनता कोई....बाजार में इतने जो मिलते हैं..। तब तो आम-जामुन की डालें हिलाकर हमलोग फल खाया करते थे। तालाब किनारे खजूर के पेड़ पर ढेले चला फल गिराते और खाते। बाल्टी-रस्सी से कुएं का पानी खींचकर नहाते। ठंडा-ठंडा। गर्मी की लहकती दोपहर को भी ठंडा पानी.....तब सिनटेक्स की टंकियां कहां थी, कि देर हुई तो नहाने के लिए सोचना पड़ेगा।
जो भी था......कुछ कमी..कुछ आभाव, मगर बहुत खूबसूरत था। याद रह जाने लायक....उम्र भर यादों में जुगाली करने लायक। अब के बच्चों को यह नसीब कहां....कंप्यूटर के जमाने में चांद-तारों से कौन बात करता है....एसी व कूलर की उपलब्धता ने पेड़ की छांव छीन ली। अब गांव वाले भी शहरी सुख-सुविधा में जीना चाहते हैं। अब गांव वाले भी शहरी बनने की होड़ में ....उस कच्चे पन का...अपनेपन का सुख भी भूल गए है। अब चाहकर भी संभव नहीं वो जीवन जीना.......। दो दिन पहले पर्यावरण दिवस मनाया हमलोगों ने। पूरा देश गर्म हवा के थपेड़ों से झुलस रहा है। यही हाल रहा तो तपती गर्मी, बेहिसाब बारिश और कंपकंपाती ठंड में इंसानी जीवन काफी दुष्कर हो जाएगा। अगर हम प्रकृति का ख्याल रखें...तो कम से कम खुली व स्वच्छ हवा में तो सांस ले पाएंगे हम..........नहीं क्या ????
Tuesday, June 5, 2012
.......छोड़ दूं ?
आसमान तक पहुंचते नहीं
हाथ मेरे
तो क्या चांद पाने की
ख्वाहिश छोड़ दूं ..... ?
छुपा लेते हैं अश्कों को
रेत भी दामन की मानिंद
तो किसी दामन को पाने की
ख्वाहिश छोड़ दूं .....?
आसमां को झुकाना मुमकिन नहीं
रेत समाते नहीं मुठठियों में
हसरतें गर न पहुंचे मंजिल तलक
तो क्या जीने की ख्वाहिश छोड़ दूं ....?
Saturday, June 2, 2012
पटनीटाप.... प्रकृति की गोद में (संस्मरण)
भाग-3
...कटरा से निकलकर हमलोगों की योजना थी पटनीटाप जाने की। टैक्सी बुक की तीन दिनों के लिए और पहाड़ों पर बसी शेरोवाली को पलट-पलट कर देखते हम पटनीटाप की ओर निकल पड़े। कटरा से इसकी दूरी करीब 85-90 किलोमीटर की है। यह श्रीनगर जाने के रास्ते में पड़ने वाला मनोरम हिल स्टेशन है। जब मैं कुछ वर्षों पहले श्रीनगर गई थी तब यहां थोड़ी देर के लिए रूकी थी। तभी मन को भा गई थी यह जगह। सोचा था्.....कभी रहने जरूर आउंगी। और यह मौका मिल गया हमें।
कटरा से थोडा आगे बढ़े तो एक से बढ़कर एक खूबसूरत दश्य सामने आने लगा। पहाड़ी रास्ता...गाड़ी की रफ़तार धीमी मगर चारों ओर अपूर्व सुदंरता। कटरा वाली गर्मी भी खत्म हो गई। हम मौसम व दश्य का आनंद लेने लगे। पूरे रास्ते अनार के पेड़ थे जिस पर लाल-लाल फूल खिले थे। ड्राइवर ने बताया कि यहां अनार की चटनी बहुत स्वादिष्ट बनाई जाती है। सफर के लगभग दो घंटे से बाद हमलोग कुद नामक जगह पहुंचे। छोटी सी जगह। यहां कि मिठाइयां मशहूर है। पास-पास कई दुकान थे मिठाइयों के। हमने भी चाय पकौड़े खाने के इरादे से गाड़ी रूकवाई। तब तक आकाश में काले मेघ घहराने लगे थे। हम चाय पीने उतरे तो टपटप बारिश शुरू.......और ठंड इतनी कि सिहरन होने लगी। किसी ने गरम कपड़े नहीं पहने थे। मगर मजा भी आ रहा था। दोनों बच्चे गाड़ी से उतरे और ठंढ से घबराकर फौरन दौड़कर उपर चढ़ गए। टपटप बारिश में भी हम गर्मागर्म गुलाब जामुन का स्वाद लेने से खुद को नहीं रोक पाए। जल्दी से चाय के साथ गर्म पकौड़ियां खाई और दौड़कर गाड़ी में जा बैठे। लो.....हो गई जोरदार बारिश शुरू। प्रसन्नता से हमलोग उछलने लगे। कार का शीशा उतारकर बौछारों का आनंद लेते...फिर भीगने लगते तो शीशा उपर। बस 12 किलामीटर ही तो था वहां से पटनीटाप। पहुंचे तो बारिश जारी थी। हम सीधे चढ़ने लगे कि उपर ही कोई होटल लेंगे। तभी रास्ते में दूसरे सैलानी मिले। उन्होंने बताया कि उपर सारे होटल भरे हैं। नीचे ही कोई देख लें। पर मुझे तो उपर ही जाने की जिद थी। मैंने कहा ट्राई करते हैं....आगे किस्मत..। खैर हमें बहुत खूबसूरत और आरामदायक होटल मिल गया। हमने समान रखा और घूमने निकल पड़े। उम्मीद से ज्यादा ठंढ़ पड़ रही थी वहां। हम ठिठुरते रहे....मगर पैदल चलते रहे। लंबे-लबे देवदार के दरख्त.;जैसे आसमान छूने की ख्वाहिश लिए बढ़ते ही जा रहे हों। हमलोग गर्म कपड़े ज्यादा नहीं ले गए है। लगा....और लाना बेहतर होता।
हमारे होटल से बाहर निकलकर एक गुमटीनुमा टी स्टाल थी। एक 15-16 साल का मुन्ना नाम का लड़का चलाता था उसे। हमें देखकर कहने लगा.....आओ साहब...होटल की मंहगी चाय छोड़कर यहां पी लो। अच्छा लगेगा ।वाकई्.... भाप उठती गरम चाय पिलाई उसने। इस बहाने थोड़ी बातचीत भी हो गई। उसे ग्राहकों का दिल बहलाने का हुनर आता था। वह वहीं से पाकिस्तान और गुलमर्ग की चोटी दिखाने लगा हमें। हमने भी हंसते-हंसते उसकी हां में हां मिलाई।
चूंकि गर्म कपड़े कम थे इसलिए मैनें सोचा कि अभिरुप को जरूरत पड़ेगी...कुछ खरीद लूं। मगर वहां दुकान के नाम पर मात्र एक कश्मीरियों की दुकान थी जहां शाल व कश्मीरी कढ़ाई वाले सलवार-कमीज मिल रहे थे...मगर स्वेटर नहीं। और कोई दूसरी दुकान नहीं थी। हां एक छोटी गुमटी और थी जहां लकड़ी से बने समान बिक रहे थे.....जैसे..सांप, छिपकिली,संदूक, अंडे आदि। सभी लकड़ी के बने। फिर तो दुकान वाले दादा जी और अभिरुप की ऐसी मित्रता हुई कि वापसी में उनके दुकान के लगभग सारे खिलौनों की एक-एक पीस कर हमारे बैग में समाते गए।
दूसरे दिन सुबह उठकर हमलोग नाग देवता के मंदिर गए। माना जाता है कि यह सदियों पुराना मंदिर है और यहां मांगी जाने वाली मन्नत जरूर पूरी होती है। हां....मंदिर के अंदर स्त्रियों का प्रवेश निषेध था। बहरहाल...हमलोग वहां दर्शन कर निकले। वहां एक छोटा मार्केट था। दुकानदारों ने 'चिंगू' गर्म कंबल खरीदने की काफी जिद की मगर हमें नहीं लेना था, सो नहीं ली।
यहां से निकलकर अब हमें सनासर जाना था जो करीब 21 किलोमीटर की दूरी पर था। पूरे रास्ते मन मोहने वाले दश्य। लंबे-लंबे चीड़ व देवदार के पेड़। पतली सड़क...थोड़ी-थोड़ी दूर पर पहाड़ों से निकलकर गिरने वाला पतला झरना...जिसे उपयोग में लाने के लिए एक पतली टोटी लगाकर नल के जैसा रूप दे दिया गया था। रास्ते में आबादी नाममात्र की थी। हमें कुछ घर मिले....जिसके छत मिट़टी के थे। नीचे पत्थरों की दीवार। बहुत अच्छा लगा। पता चला लोग वहां रहते भी हैं और मवेशियो के लिए भी ऐसे घर बनाए जाते हैं।
रास्ता बहुत सुंदर। पतली मगर साफ सड़क....स्वच्छ हवा...नीले आकाश पर सफेद बादल का टुकड़ा....दूर पहाडियां और सबसे पीछे वाली पहाड़ पर बर्फ चांदी सी चमक रही थी। हम सब खुशी से शोर मचाने लगे। जब सफेद बर्फ के पहाड़ पर धूप पड़ती....तो सोने सा जगमग करने लगता।
वहां पूरे जंगल में मैंने देखा....बिजली के खंभे लगे थे। अर्थात विघुत व्यवस्था दुरूस्त थी। ऐसा रमणीय दश्य था कि आंखें ही नहीं हट रही थी। तभी एक बस्ती जैसी जगह आई। कुछ घर थे वहां। हमारी गाड़ी निकली तो कुछ बच्चे चिल्लाते हुए पीछे दौड़े। ध्यान दिया.....तो वे कह रहे थे कि कुछ खाने की चीज हो तो देते जाओ। सच...बहुत बुरा लगा हमें। हमारे पास ऐसी कोई खाद्य सामग्री नहीं थी। मालूम होता तो कुछ नीचे से साथ ले लेते। दरअसल हम मैदान वालों को पहाड़ बहुत आकर्षित करता है मगर पहाड़ का जीवन वाकई पहाड़ जैसा होता है। खाने-पीने की सामग्री सब नीचे से लानी पड़ती है। हालांकि अपने खाने योग्य कुछ अनाज, दाल व सब्जियां वो खुद उगा लेते हैं....जो हमें दिख भी रहा था। मगर ये पर्याप्त नहीं होता।
मन थोड़ा मलिन हुआ..पर सोचा कि वापसी के वक्त उन बच्चों के लिए कुछ खरीदकर ले चलेंगे।
ऐसे ही रास्ते का आनंद लेते हम सनासर पहुंचे। देखा....बहुत ही मनोरम स्थल है। कई सरकारी काटेज भी बने हैं रहने के लिए। चारों तरफ चीड़ व देवदार के पेड़....दूर से फूलों का बागीचा नजर आ रहा था। रंग-बिरंगे फूल...चारों ओर हरियाली...दूर एक झील...उसके बगल से रास्ता गया है। मनमोहक इतना, कि लगा....यही रह जाए हम। हमलोग घूमने लगे। हालांकि धूप थी मगर दरख्तों की छांव ने उसका असर छीन लिया था। हम झील किनारे चलते-चलते नाग देवता के मंदिर जा पहुंचे। उसके बाद एक लवर्स प्वांइट आया। यहां इको साउंड होता था। मैं जोर से चिल्लाई....प्रतिध्वनि में मेरी ही आवाज वापस आई। सच.....बड़ा अच्छा लगा। यहां अभिरुप ने घुडसवारी की। मस्त होकर घोड़े का आनंद लिया। इसी दौरान सनासर की खूबसूरत वादियों में ग्यारह-बारह वर्ष की एक बच्ची मिली। अपनी गाय के लिए घास काटते हुए। पास गई तो शरमाने लगी। नाम बताया- उर्मिला देवी। पूछा-शादी हो गर्इ क्या.....तो और शरमा गई। मुझे बहुत अच्छी लगी। स्कूल में पढ़ती है..बताया।
वहां रंग-बिरंगे मौसमी फूल, गेंदे, गुलाब और कई तरह के फूल थे। मुझे कई तितलियां नजर आई वहां। पता चला थोड़े दिनों बाद यह पूरी जगह फूलों से भर जाती है। तब झील की खूबसूरती और देखने लायक होती है। उंचे पेड़ के पीछे से झांकता सफेद बादल का टुकड़ा.....अविस्मरणीय बनाता है सब कुछ। हरी-हरी घास पर भेड़े चर रही थी। दूर बादल का टुकड़ा पेड़ के पीछे से हमें झांक कर देख रहा था। मन ही मन मैं गाने लगी......'मन कहे रूक जा रूक जा....यहीं पे कहीं'
मगर लौटने का वक्त हो रहा था। अंधेरा होने पर पहाड़ी रास्ते पर चलना दुष्कर हो जाता है। हम वहां से वापसी के लिए चल पड़े। सूरज धीरे-धीरे नीचे जा रहा था। रास्ते में चरवाहे अपनी भेड़ों के साथ वापस लौट रहे थे। ढेर सारी भेड़ें और पीछे हाथ में डंडे लिए मस्त चाल से चलते चरवाहे। हमारी गाड़ी धीरे-धीरे आगे बढ़ रही थी। तभी मैंने देखा एक बूढ़ी औरत अपनी भेड़ों को हांकते आ रही थी। उन्होंने मुझे देखा। और मैंने देखा कि मेरे हाथ में कैमरा देखकर उनकी आंखों में चमक आ गई है। जी में आया....ले लूं फोटो.....कैमरा सीधा किया तो ये अम्मां भी तन कर खड़ी हो गई। खींच ली मैने तस्वीर। अब वो अम्मा हमेशा याद रहेगी मुझे।
रास्ते में नत्था टाप आया। यहां से पूरे पहाड का विहंगम दृश्य नजर आ रहा था। उंची-उंची पहाड़ियां...दूर नीचे पेड़ों का झुरमुट..;मस्त बयार, बर्फ बिछी चोटियों को छूता आसमान......नयनाभिराम दृश्य,मनमोहक....।
हमलोग घंटे भर प्रकृति के साथ रूके। उसके बाद चल पड़े अपने ठिकाने की ओर..।
अब शाम अंधेरी रात में बदल रही थी। पहाड़ों पर शाम बहुत देर से होती है और बेहद खूबसूरत भी। मन करता है......बादलों की लुकाछिपी और लंबे दरख्त से छनकर आती धूप देखती रहूं। जब आसमान में कई रंग होते हैं तो पीछे से बर्फ की चोटियां झांकती है तो मन.......हवा के साथ कुलांचे भरने लगता है। यूं लगता है जैसे इतना नीला आसमां तो कहीं और देखा ही नहीं। मगर वापस तो लौटना ही था। सभी दृश्य को आंखों में भर हम लौट आए होटल। बीच में एक बच्चों के पार्क में गए जहां कई झूले लगे थे।
बस आज की रात.....कल हमलोगों को लौटना था। सुबह जल्दी नींद खुली। बाहर देखा.....सुंदर समां...कौओं की कांव-कांव। बरबस मुझे फिल्म 'झूठ बोले कौआ काटे' की याद आ गई। उसमें ऐसे ही कौए थे। हमारे यहां से थोड़े अलग... ज्यादा काले, कुछ लंबे। तभी बंदरों पर नजर पड़ी। चिल्लाकर बच्चों को दिखाया। फिर सुबह की सैर को निकल पड़ी। इस ख्याल से कि अब जाने इतनी हसीन वादियों में दुबारा आने का मौका कब मिले।
दूर तक पेड़ों की छांव में सुनहरी धूप का आनंद लेती चलती गई। बड़ी खिली-खिली सी थी धूप। सड़क किनारे काफी देर बैठकर देखती रही। घोड़े वाले सैर करने के लिए पूछते रहे। मगर......जो आनंद प्रकृति की गोद में र्है वो और कहां। वापसी में उसी मुन्ने चाय वाले के स्टाल में चाय पी...थोड़ी बात की। अगली बार आने का उससे ज्यादा खुद को भरोसा दिलाया और समान समेटने चल पड़ी।
दोपहर को पटनीटाप छोड जम्मू की ओर निकल चले। 20 किलामीटर दूर आते ही गर्मी लगने लगी। जम्मू तो तप रहा था। वहां रघुनाथ मंदिर में दर्शन किए और रेलवे स्टेशन। वहां से दिल्ली का सफर फिर राजधानी से 19 की सुबह वापस अपने घर। ढेर सी यादों को संजोये........।
*****************समाप्त ************************
...कटरा से निकलकर हमलोगों की योजना थी पटनीटाप जाने की। टैक्सी बुक की तीन दिनों के लिए और पहाड़ों पर बसी शेरोवाली को पलट-पलट कर देखते हम पटनीटाप की ओर निकल पड़े। कटरा से इसकी दूरी करीब 85-90 किलोमीटर की है। यह श्रीनगर जाने के रास्ते में पड़ने वाला मनोरम हिल स्टेशन है। जब मैं कुछ वर्षों पहले श्रीनगर गई थी तब यहां थोड़ी देर के लिए रूकी थी। तभी मन को भा गई थी यह जगह। सोचा था्.....कभी रहने जरूर आउंगी। और यह मौका मिल गया हमें।
कटरा से थोडा आगे बढ़े तो एक से बढ़कर एक खूबसूरत दश्य सामने आने लगा। पहाड़ी रास्ता...गाड़ी की रफ़तार धीमी मगर चारों ओर अपूर्व सुदंरता। कटरा वाली गर्मी भी खत्म हो गई। हम मौसम व दश्य का आनंद लेने लगे। पूरे रास्ते अनार के पेड़ थे जिस पर लाल-लाल फूल खिले थे। ड्राइवर ने बताया कि यहां अनार की चटनी बहुत स्वादिष्ट बनाई जाती है। सफर के लगभग दो घंटे से बाद हमलोग कुद नामक जगह पहुंचे। छोटी सी जगह। यहां कि मिठाइयां मशहूर है। पास-पास कई दुकान थे मिठाइयों के। हमने भी चाय पकौड़े खाने के इरादे से गाड़ी रूकवाई। तब तक आकाश में काले मेघ घहराने लगे थे। हम चाय पीने उतरे तो टपटप बारिश शुरू.......और ठंड इतनी कि सिहरन होने लगी। किसी ने गरम कपड़े नहीं पहने थे। मगर मजा भी आ रहा था। दोनों बच्चे गाड़ी से उतरे और ठंढ से घबराकर फौरन दौड़कर उपर चढ़ गए। टपटप बारिश में भी हम गर्मागर्म गुलाब जामुन का स्वाद लेने से खुद को नहीं रोक पाए। जल्दी से चाय के साथ गर्म पकौड़ियां खाई और दौड़कर गाड़ी में जा बैठे। लो.....हो गई जोरदार बारिश शुरू। प्रसन्नता से हमलोग उछलने लगे। कार का शीशा उतारकर बौछारों का आनंद लेते...फिर भीगने लगते तो शीशा उपर। बस 12 किलामीटर ही तो था वहां से पटनीटाप। पहुंचे तो बारिश जारी थी। हम सीधे चढ़ने लगे कि उपर ही कोई होटल लेंगे। तभी रास्ते में दूसरे सैलानी मिले। उन्होंने बताया कि उपर सारे होटल भरे हैं। नीचे ही कोई देख लें। पर मुझे तो उपर ही जाने की जिद थी। मैंने कहा ट्राई करते हैं....आगे किस्मत..। खैर हमें बहुत खूबसूरत और आरामदायक होटल मिल गया। हमने समान रखा और घूमने निकल पड़े। उम्मीद से ज्यादा ठंढ़ पड़ रही थी वहां। हम ठिठुरते रहे....मगर पैदल चलते रहे। लंबे-लबे देवदार के दरख्त.;जैसे आसमान छूने की ख्वाहिश लिए बढ़ते ही जा रहे हों। हमलोग गर्म कपड़े ज्यादा नहीं ले गए है। लगा....और लाना बेहतर होता।
हमारे होटल से बाहर निकलकर एक गुमटीनुमा टी स्टाल थी। एक 15-16 साल का मुन्ना नाम का लड़का चलाता था उसे। हमें देखकर कहने लगा.....आओ साहब...होटल की मंहगी चाय छोड़कर यहां पी लो। अच्छा लगेगा ।वाकई्.... भाप उठती गरम चाय पिलाई उसने। इस बहाने थोड़ी बातचीत भी हो गई। उसे ग्राहकों का दिल बहलाने का हुनर आता था। वह वहीं से पाकिस्तान और गुलमर्ग की चोटी दिखाने लगा हमें। हमने भी हंसते-हंसते उसकी हां में हां मिलाई।
चूंकि गर्म कपड़े कम थे इसलिए मैनें सोचा कि अभिरुप को जरूरत पड़ेगी...कुछ खरीद लूं। मगर वहां दुकान के नाम पर मात्र एक कश्मीरियों की दुकान थी जहां शाल व कश्मीरी कढ़ाई वाले सलवार-कमीज मिल रहे थे...मगर स्वेटर नहीं। और कोई दूसरी दुकान नहीं थी। हां एक छोटी गुमटी और थी जहां लकड़ी से बने समान बिक रहे थे.....जैसे..सांप, छिपकिली,संदूक, अंडे आदि। सभी लकड़ी के बने। फिर तो दुकान वाले दादा जी और अभिरुप की ऐसी मित्रता हुई कि वापसी में उनके दुकान के लगभग सारे खिलौनों की एक-एक पीस कर हमारे बैग में समाते गए।
दूसरे दिन सुबह उठकर हमलोग नाग देवता के मंदिर गए। माना जाता है कि यह सदियों पुराना मंदिर है और यहां मांगी जाने वाली मन्नत जरूर पूरी होती है। हां....मंदिर के अंदर स्त्रियों का प्रवेश निषेध था। बहरहाल...हमलोग वहां दर्शन कर निकले। वहां एक छोटा मार्केट था। दुकानदारों ने 'चिंगू' गर्म कंबल खरीदने की काफी जिद की मगर हमें नहीं लेना था, सो नहीं ली।
यहां से निकलकर अब हमें सनासर जाना था जो करीब 21 किलोमीटर की दूरी पर था। पूरे रास्ते मन मोहने वाले दश्य। लंबे-लंबे चीड़ व देवदार के पेड़। पतली सड़क...थोड़ी-थोड़ी दूर पर पहाड़ों से निकलकर गिरने वाला पतला झरना...जिसे उपयोग में लाने के लिए एक पतली टोटी लगाकर नल के जैसा रूप दे दिया गया था। रास्ते में आबादी नाममात्र की थी। हमें कुछ घर मिले....जिसके छत मिट़टी के थे। नीचे पत्थरों की दीवार। बहुत अच्छा लगा। पता चला लोग वहां रहते भी हैं और मवेशियो के लिए भी ऐसे घर बनाए जाते हैं।
रास्ता बहुत सुंदर। पतली मगर साफ सड़क....स्वच्छ हवा...नीले आकाश पर सफेद बादल का टुकड़ा....दूर पहाडियां और सबसे पीछे वाली पहाड़ पर बर्फ चांदी सी चमक रही थी। हम सब खुशी से शोर मचाने लगे। जब सफेद बर्फ के पहाड़ पर धूप पड़ती....तो सोने सा जगमग करने लगता।
वहां पूरे जंगल में मैंने देखा....बिजली के खंभे लगे थे। अर्थात विघुत व्यवस्था दुरूस्त थी। ऐसा रमणीय दश्य था कि आंखें ही नहीं हट रही थी। तभी एक बस्ती जैसी जगह आई। कुछ घर थे वहां। हमारी गाड़ी निकली तो कुछ बच्चे चिल्लाते हुए पीछे दौड़े। ध्यान दिया.....तो वे कह रहे थे कि कुछ खाने की चीज हो तो देते जाओ। सच...बहुत बुरा लगा हमें। हमारे पास ऐसी कोई खाद्य सामग्री नहीं थी। मालूम होता तो कुछ नीचे से साथ ले लेते। दरअसल हम मैदान वालों को पहाड़ बहुत आकर्षित करता है मगर पहाड़ का जीवन वाकई पहाड़ जैसा होता है। खाने-पीने की सामग्री सब नीचे से लानी पड़ती है। हालांकि अपने खाने योग्य कुछ अनाज, दाल व सब्जियां वो खुद उगा लेते हैं....जो हमें दिख भी रहा था। मगर ये पर्याप्त नहीं होता।
मन थोड़ा मलिन हुआ..पर सोचा कि वापसी के वक्त उन बच्चों के लिए कुछ खरीदकर ले चलेंगे।
ऐसे ही रास्ते का आनंद लेते हम सनासर पहुंचे। देखा....बहुत ही मनोरम स्थल है। कई सरकारी काटेज भी बने हैं रहने के लिए। चारों तरफ चीड़ व देवदार के पेड़....दूर से फूलों का बागीचा नजर आ रहा था। रंग-बिरंगे फूल...चारों ओर हरियाली...दूर एक झील...उसके बगल से रास्ता गया है। मनमोहक इतना, कि लगा....यही रह जाए हम। हमलोग घूमने लगे। हालांकि धूप थी मगर दरख्तों की छांव ने उसका असर छीन लिया था। हम झील किनारे चलते-चलते नाग देवता के मंदिर जा पहुंचे। उसके बाद एक लवर्स प्वांइट आया। यहां इको साउंड होता था। मैं जोर से चिल्लाई....प्रतिध्वनि में मेरी ही आवाज वापस आई। सच.....बड़ा अच्छा लगा। यहां अभिरुप ने घुडसवारी की। मस्त होकर घोड़े का आनंद लिया। इसी दौरान सनासर की खूबसूरत वादियों में ग्यारह-बारह वर्ष की एक बच्ची मिली। अपनी गाय के लिए घास काटते हुए। पास गई तो शरमाने लगी। नाम बताया- उर्मिला देवी। पूछा-शादी हो गर्इ क्या.....तो और शरमा गई। मुझे बहुत अच्छी लगी। स्कूल में पढ़ती है..बताया।
वहां रंग-बिरंगे मौसमी फूल, गेंदे, गुलाब और कई तरह के फूल थे। मुझे कई तितलियां नजर आई वहां। पता चला थोड़े दिनों बाद यह पूरी जगह फूलों से भर जाती है। तब झील की खूबसूरती और देखने लायक होती है। उंचे पेड़ के पीछे से झांकता सफेद बादल का टुकड़ा.....अविस्मरणीय बनाता है सब कुछ। हरी-हरी घास पर भेड़े चर रही थी। दूर बादल का टुकड़ा पेड़ के पीछे से हमें झांक कर देख रहा था। मन ही मन मैं गाने लगी......'मन कहे रूक जा रूक जा....यहीं पे कहीं'
मगर लौटने का वक्त हो रहा था। अंधेरा होने पर पहाड़ी रास्ते पर चलना दुष्कर हो जाता है। हम वहां से वापसी के लिए चल पड़े। सूरज धीरे-धीरे नीचे जा रहा था। रास्ते में चरवाहे अपनी भेड़ों के साथ वापस लौट रहे थे। ढेर सारी भेड़ें और पीछे हाथ में डंडे लिए मस्त चाल से चलते चरवाहे। हमारी गाड़ी धीरे-धीरे आगे बढ़ रही थी। तभी मैंने देखा एक बूढ़ी औरत अपनी भेड़ों को हांकते आ रही थी। उन्होंने मुझे देखा। और मैंने देखा कि मेरे हाथ में कैमरा देखकर उनकी आंखों में चमक आ गई है। जी में आया....ले लूं फोटो.....कैमरा सीधा किया तो ये अम्मां भी तन कर खड़ी हो गई। खींच ली मैने तस्वीर। अब वो अम्मा हमेशा याद रहेगी मुझे।
रास्ते में नत्था टाप आया। यहां से पूरे पहाड का विहंगम दृश्य नजर आ रहा था। उंची-उंची पहाड़ियां...दूर नीचे पेड़ों का झुरमुट..;मस्त बयार, बर्फ बिछी चोटियों को छूता आसमान......नयनाभिराम दृश्य,मनमोहक....।
हमलोग घंटे भर प्रकृति के साथ रूके। उसके बाद चल पड़े अपने ठिकाने की ओर..।
अब शाम अंधेरी रात में बदल रही थी। पहाड़ों पर शाम बहुत देर से होती है और बेहद खूबसूरत भी। मन करता है......बादलों की लुकाछिपी और लंबे दरख्त से छनकर आती धूप देखती रहूं। जब आसमान में कई रंग होते हैं तो पीछे से बर्फ की चोटियां झांकती है तो मन.......हवा के साथ कुलांचे भरने लगता है। यूं लगता है जैसे इतना नीला आसमां तो कहीं और देखा ही नहीं। मगर वापस तो लौटना ही था। सभी दृश्य को आंखों में भर हम लौट आए होटल। बीच में एक बच्चों के पार्क में गए जहां कई झूले लगे थे।
बस आज की रात.....कल हमलोगों को लौटना था। सुबह जल्दी नींद खुली। बाहर देखा.....सुंदर समां...कौओं की कांव-कांव। बरबस मुझे फिल्म 'झूठ बोले कौआ काटे' की याद आ गई। उसमें ऐसे ही कौए थे। हमारे यहां से थोड़े अलग... ज्यादा काले, कुछ लंबे। तभी बंदरों पर नजर पड़ी। चिल्लाकर बच्चों को दिखाया। फिर सुबह की सैर को निकल पड़ी। इस ख्याल से कि अब जाने इतनी हसीन वादियों में दुबारा आने का मौका कब मिले।
दूर तक पेड़ों की छांव में सुनहरी धूप का आनंद लेती चलती गई। बड़ी खिली-खिली सी थी धूप। सड़क किनारे काफी देर बैठकर देखती रही। घोड़े वाले सैर करने के लिए पूछते रहे। मगर......जो आनंद प्रकृति की गोद में र्है वो और कहां। वापसी में उसी मुन्ने चाय वाले के स्टाल में चाय पी...थोड़ी बात की। अगली बार आने का उससे ज्यादा खुद को भरोसा दिलाया और समान समेटने चल पड़ी।
दोपहर को पटनीटाप छोड जम्मू की ओर निकल चले। 20 किलामीटर दूर आते ही गर्मी लगने लगी। जम्मू तो तप रहा था। वहां रघुनाथ मंदिर में दर्शन किए और रेलवे स्टेशन। वहां से दिल्ली का सफर फिर राजधानी से 19 की सुबह वापस अपने घर। ढेर सी यादों को संजोये........।
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