Tuesday, April 24, 2012

मुर्दों का शहर

कोई झंझावात नहीं आता अब
मुर्दों का शहर है ये
कोई नहीं जागता अब
सरे शाम....भरी भीड़ में
लुट जाती है
एक औरत की 'अस्‍मत'
वो चीखती-चि‍ल्‍लाती
गि‍ड़गि‍ड़ाती रह जाती है
देखती है उसे
हजारों आंखें
कि‍ बचाओ-बचाओ की गुहार लगाते
रूंध गया उसका गला
मगर चंद दरिंदें
लोगों की भीड़़ से
उठा ले जाते हैं उसे
मगर हाय...
ये आत्‍मलीनता की पराकाष्‍ठा
कहीं कोई सुगबुगाहट नहीं
कि‍सी को नहीं होती पीड़ा
कि‍सी के आंखों में पानी नहीं
हां....यह मुर्दों का शहर है
कोई नहीं जागता अब.....
कोई नहीं जागता अब...

20 comments:

  1. जाने क्या हो गया है इंसानों को........आत्म मर गयी है..हाँ मुर्दों का शहर है ये........
    बहुत सशक्त रचना रश्मि जी....

    अनु

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  2. स्वयं को जगाना होगा..

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  3. स्वयं को जगाना होगा..

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  4. संवेदनहीन समाज और मैं की दौड़ ... पता नहीं कहाँ रुकेगी ... आक्रोश भरी संवेदनशील रचना ..

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  5. भावपूर्ण प्रस्तुति.... आभार

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  6. बहुत उम्दा और सार्थक प्रस्तुति!

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  7. हाँ मुर्दों का शहर है
    आज की सच्चाई से रूबरू कराती रचना आभार.....

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  8. बहुत अच्छी रचना! आज किस तरह संवेदनहीनता बढ़ती जा रही है। हमारे सामने हादसे होते जाते हैं और हम उस ओर से ऐसे आँखें फेर लेते हैं जैसे हमारी जि़ंदगी से उसका कोई सरोकार ही नहीं, और इसी तरह कोई हादसा हमें अपना शिकार बना लेता है। मरती संवेदनाओं की ओर सचेत करती बहुत अच्छी कविता। मेरी बधाई !

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  9. मेरे विचार से इस तरह की घटनाओ के लिए अलग से फास्ट ट्रैक अदालत होनी चाहिए और कठोर दंड. कोचिंग क्लास और जहाँ महिलाएं कार्य करती हैं उन्हें उनको घर तक सुरक्षित पहुचने की जिमेदारी लेनी चाहिए.

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  10. बहुत ही बढिया प्रस्‍तुति।

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  11. कल 30/04/2012 को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
    धन्यवाद!

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  12. संवेदनहीन होती मानवता पर सटीक प्रहार ...
    बहुत बढ़िया प्रेरक प्रस्तुति

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  13. गहन अभिव्यक्ति ...सच सब मुर्दे ही हो गए हैं ॥न कोई संवेदना है न प्यार बस है तो स्वार्थ

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  14. हर शब्द उस तड़प का अहसास दिलाता हुआ ....बहुत सशक्त अभिव्यक्ति !

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  15. आपने तो आज के युग का सच लिख दिया यथार्थ का आईना दिखती सार्थक प्रस्तुति....

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  16. देखो कोई सुगबुगा रहा है , थोड़ी जान बाकी है - पानी तो दो आँखों की सुराही से

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  17. भावपूर्ण ,बहुत बहुत बधाई...

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  18. बहुत ही मार्मिक रचना.....वाकई....मुर्दों का ही शहर है.....

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