Saturday, March 24, 2012

बि‍न डोर की पतंग....

जब कभी मन
बि‍न डोर की पतंग बन
आकाश की
अनंत उंचाईयों को
छूने को बेकरार होता है....
मैं उस अद्श्‍य डोर को
धरातल के खूंटे से
बांधने में तल्‍लीन हो जाती हूं
यह जानते हुए भी, कि
मन को पतंग से
परिंदा बनने में
कोई वक्‍त नहीं लगता
और उसकी उड़ान
उस पर्वत तक हो सकती है
जहां
सूरज अठखेलि‍यां करता है
उन सपनों से
जो सि‍र्फ खुली आंखों से
देखी जाती है
मगर नि‍यति‍ तो
एक डोर से दूजे को
बांधने के लि‍ए ही
जैसे बैठी होती है
और बंद कर देती है
कसकर मन के कपाट
जहां कोई मन मतंग
अधि‍कार जमाए बैठा हो......।

11 comments:

  1. Nice .

    नव संवत्सर की हार्दिक शुभकामनाएं ...

    ### चुनौती जिन्दगी की: संघर्ष भरे वे दिन (१६)
    प्रस्तुतकर्ता रेखा श्रीवास्तव
    http://www.merasarokar.blogspot.in/2012/03/blog-post_22.html

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  2. उड़ना बिन डोर के ही जीवन है
    आभार
    गंभीर रचना।

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  3. उड़ना बिन डोर के ही जीवन है
    आभार
    गंभीर रचना।

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  4. बहुत सुन्दर.........

    आपके मन की पतंग को महसूस किया ....
    खूब उडी....

    सस्नेह.
    अनु

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  5. बहुत अच्छी प्रस्तुति!
    इस प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार के चर्चा मंच पर भी होगी!
    सूचनार्थ!
    नवरात्रों की हार्दिक शुभकामनाएँ!

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  6. कल 26/03/2012 को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
    धन्यवाद!

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  7. सुन्दर/गंभीर चिंतन....
    सादर.

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  8. मन की पतंग यूं ही उड़ती है .... सुंदर प्रस्तुति

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