जब कभी मन
बिन डोर की पतंग बन
आकाश की
अनंत उंचाईयों को
छूने को बेकरार होता है....
मैं उस अद्श्य डोर को
धरातल के खूंटे से
बांधने में तल्लीन हो जाती हूं
यह जानते हुए भी, कि
मन को पतंग से
परिंदा बनने में
कोई वक्त नहीं लगता
और उसकी उड़ान
उस पर्वत तक हो सकती है
जहां
सूरज अठखेलियां करता है
उन सपनों से
जो सिर्फ खुली आंखों से
देखी जाती है
मगर नियति तो
एक डोर से दूजे को
बांधने के लिए ही
जैसे बैठी होती है
और बंद कर देती है
कसकर मन के कपाट
जहां कोई मन मतंग
अधिकार जमाए बैठा हो......।
Nice .
ReplyDeleteनव संवत्सर की हार्दिक शुभकामनाएं ...
### चुनौती जिन्दगी की: संघर्ष भरे वे दिन (१६)
प्रस्तुतकर्ता रेखा श्रीवास्तव
http://www.merasarokar.blogspot.in/2012/03/blog-post_22.html
उड़ना बिन डोर के ही जीवन है
ReplyDeleteआभार
गंभीर रचना।
उड़ना बिन डोर के ही जीवन है
ReplyDeleteआभार
गंभीर रचना।
sundar rachna
ReplyDeleteबहुत सुन्दर.........
ReplyDeleteआपके मन की पतंग को महसूस किया ....
खूब उडी....
सस्नेह.
अनु
बेहतरीन
ReplyDeleteसादर
बहुत अच्छी प्रस्तुति!
ReplyDeleteइस प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार के चर्चा मंच पर भी होगी!
सूचनार्थ!
नवरात्रों की हार्दिक शुभकामनाएँ!
कल 26/03/2012 को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
ReplyDeleteधन्यवाद!
सुन्दर/गंभीर चिंतन....
ReplyDeleteसादर.
मन की पतंग यूं ही उड़ती है .... सुंदर प्रस्तुति
ReplyDeletewell panned!
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