भय की एक हल्की सी छाया
मन को घेरे है
वो......जिसका वजूद
शून्यमात्र का था
आज
विस्तार लेता हुआ
आकाश बनता जा रहा है
और
इस आकाश तले
मेरा वजूद
नामालूम सा लगने लगा है
क्या
शून्य से असंख्य बनने की कला
उसे आती है
या मेरा ही कद
बौना साबित हो रहा है..
बताए कोई
क्या मेरे अस्तित्व को
निगल लेगा वो..
जो कल तक
कहीं कोई मायने नहीं रखता था
या फिर
इतनी मजबूती
पैदा हो जाएगी खुद में
कि.....मैं ही
अनन्त
आकाशबेल बन जाउं....।
10 comments:
हमेशा की तरह वही सादगी.वही वज़न.अंत बेहद प्रभावी:
मेरे अस्तित्व को
निगल लेगा वो..
जो कल तक
कहीं कोई मायने नहीं रखता था
या फिर
इतनी मजबूती
पैदा हो जाएगी खुद में
कि.....मैं ही
अनन्त
आकाशबेल बन जाउं....।
शून्य से असंख्य बनने की कला
उसे आती है
या मेरा ही कद
बौना साबित हो रहा है..
बताए कोई
क्या मेरे अस्तित्व को
निगल लेगा वो..
bahur hi sundr badhai
बहुत खूबसूरत प्रस्तुति।
पैदा हो जाएगी खुद में
कि.....मैं ही
अनन्त
आकाशबेल बन जाउं....।
shuny mein viraam lag jaayegaa
wah bahut khoob
सराहनीय अभिव्यक्ति.
nice .
वाह... बहुत बढ़िया!
Khoobsurat rachna bejod shabdo ka samagam milta hai aapki rachna mein aur bahut kuch sikha jati hai aksar aapki rachnayen.
Aabhaar....!!
बहुत खूबसूरत प्रस्तुति।
सार्थक और बेहद खूबसूरत,प्रभावी,उम्दा रचना है..शुभकामनाएं।
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