Monday, January 9, 2012

याद तुम्‍हारी....


नहीं जानती
कि‍ जब
ढलती शाम को
पेड़ के पत्‍तों पर
पीली आभा बि‍खरती है
और सर्द हवाएं
तन को चुभने सी लगती हैं
तब
डूबते सूरज से इतर...
जहां लालि‍मा
हल्‍की होती है
तुम्‍हारी याद
यूं मुझे अपनी
गि‍रफ़़त में लेती है
जैसे
सूरज के अस्‍त होते ही
उजाले को अंधि‍यारा
अपने आगोश में
भर लेता है....

8 comments:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

बहुत सटीक लिखा है आपने!
आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल मंगलवार के चर्चा मंच पर भी होगी!
सूचनार्थ!

vandana gupta said...

सुन्दर भावाव्यक्ति।

ब्लॉ.ललित शर्मा said...

सुंदर कविता

Nirantar said...

sooraj ko bhee apne andar samet letaa hai
bahut badhiyaa ,khoob soorat

M VERMA said...

वाह क्या बिम्ब साम्य लिया है ...

Sadhana Vaid said...

बहुत ही खूबसूरत अभिव्यक्ति है ! बधाई स्वीकार करें !

ashokjairath's diary said...

कल
मिटाना चाहा था अपने सर्नामों को
लिफाए बंद ही लौट जाएँ किसी डी एल ओ को
हर लिफाफा लाता है तुम्हारी यादें
बेहाली के लंबे दौर थमते नहीं है

तुम्हारा दिया दिए का तेल चुक रहा है
अब पत्रों का सिलसिला भी थमे तो सोचें
क्या साथ जाएगा
क्या रह जाएगा

क्या तुम छूट पाओगे
क्या आज़ाद करोगे हमें ...
अब कर दो आज़ाद कि दो सांस ले पायें
अपने हिस्से की ....

मनोज कुमार said...

प्रकृति के बिम्बों द्वारा संदेश देती रचना।