मन की पीड़ा
कुछ कम तो हुई
मगर
इनकी कुलांचों को
कैसे जकडूं.....
यह बार-बार
आशाओं की फुनगी पर
जा बैठता है
चहकता है
मचलता है और
अंतत एक दिन
यथार्थ से टकरा
घायल हो जाता है
मगर चोट खाकर भी
नई उड़ान को
तत्पर हो जाता है
क्या मन ये
नहीं जानता
कि इन कुलांचों का आनंद
क्षणिक है...
फिर भी
क्यों नहीं जकड़ पाती
अपने इस आवारा मन को
जो जब-तब
कल्पनाओं के पर लगा
दूर निकल जाता है
और बो जाता है
मेरे लिए.....
दर्द का विष बेल।
मगर
इनकी कुलांचों को
कैसे जकडूं.....
यह बार-बार
आशाओं की फुनगी पर
जा बैठता है
चहकता है
मचलता है और
अंतत एक दिन
यथार्थ से टकरा
घायल हो जाता है
मगर चोट खाकर भी
नई उड़ान को
तत्पर हो जाता है
क्या मन ये
नहीं जानता
कि इन कुलांचों का आनंद
क्षणिक है...
फिर भी
क्यों नहीं जकड़ पाती
अपने इस आवारा मन को
जो जब-तब
कल्पनाओं के पर लगा
दूर निकल जाता है
और बो जाता है
मेरे लिए.....
दर्द का विष बेल।
अंतत एक दिन यथार्थ से टकरा जाता है , बहुत सुंदर भावाव्यक्ति यही रचना का सार है बधाई
ReplyDeleteयही तो जीवन और जिंदा होने का प्रमाण है, कहीं कई लोग फुनगी पर नहीं बैठ पाते, बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति। आभार।
ReplyDeleteयह जीवन है इस जीवन का यही है.... यही ...है यही है... रंग रूप थोड़े गम हैं थोड़ी खुशियाँ .....
ReplyDeleteसमय मिले आपको कभी तो आयेगा मेरी पोस्ट पर
आपका स्वागत है
http://mhare-anubhav.blogspot.com/
ये दर्द कागज़ की अनोखी कतरन हैं ... दरजी कि मशीन के पास बिखरी रहती हैं ... वह समेत कर थैली में भर के संभाल लेता है इन्हें ... कौन जाने कब कोई किसी काम आ जाए ... मन का दरजी शायद इनके काम में आने के विषय में नहीं सोचता ... पर ... कोई तो स्पंदित सा रिश्ता होता है जो इन्हें कचरा नहीं होने देता ... तुम्हारी कविता तो इन्हीं कतरनों की केन है ... प्यार और आशीर्वाद ...
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