रूप का तिलिस्म जब अरूप का सामना करे, तो बेचैनियां बढ़ जाती हैं...
Sunday, June 12, 2011
यादों की ओस
मैं पीना चाहती हूं हथेली पर ठहरे ओस की बूंदों की तरह उन यादों को.... जो गवाह है कि सारी रात टपकता रहा दर्द कोई सीने में जख्म की तरह रिसता रहा मेरी आंखों से पानी.... और सुबह जब बंद मुट़ठी खुली तो सिमटी थी हथेली में चंद यादों की कतरनें
हर रोज़ निखर रही है तुम्हारी कविता ... अच्छा लगता है ...
रांची का पुराना बूढा चाँद हमारे दरवाज़े तक आया ... हम जग गए और उससे बातें कीं ... हमारी यादों की गठरी लादे वह थक गया है ... शायद शापग्रस्त है ... या उस के वादों कि कैद में है ... रिहाई चाहता है ... हम पुकारते हैं उनको और कहते है कि उसे आज़ाद कर दो ...
क्या उसकी रिहाई पसंद करेंगी ... प्यार और आशिर्वाद ...
हर रोज़ निखर रही है तुम्हारी कविता ... अच्छा लगता है ...
ReplyDeleteरांची का पुराना बूढा चाँद हमारे दरवाज़े तक आया ... हम जग गए और उससे बातें कीं ... हमारी यादों की गठरी लादे वह थक गया है ... शायद शापग्रस्त है ... या उस के वादों कि कैद में है ... रिहाई चाहता है ... हम पुकारते हैं उनको और कहते है कि उसे आज़ाद कर दो ...
क्या उसकी रिहाई पसंद करेंगी ... प्यार और आशिर्वाद ...