Sunday, May 15, 2011

साझे का वादा


तुमने कहा था-----
कि‍ साझा ह्रै सब कुछ
बांट लो मुझसे
अपनी पीड़ा और सपने
मैं रखूंगा तुम्‍हारे
दर्द पर प्‍यार के फाहे---
और दूंगा
तुम्‍हारे सपनों को पंख
मगर कहां तुम
अपनी जुबां की लाज रख पाए
मेरे दर्द को और कुरेदा तुमने
उड़ने से पहले ही पंख कतर डाले
ये कैसा साझे का वादा था----
जो तुमने नि‍भाया
और हमने पाया।

3 comments:

  1. ...सब्र कर ऐ दिल मेरे तू सब्र कर
    कुछ अँधेरे और फिर बस रौशनी

    पंख तेरे और थोड़े से उगें
    ख्वाब में थोड़ी सी बेचैनी बढे

    फिर उड़ाने तेरी तुझको ले चलें
    उस तरफ जिसकी थीं सब बातें करीं

    पर ज़रा सा बस ज़रा सा सब्र कर

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  2. लगभग हर जगह यही सब -कुछ होता है ..रह रह जाती है कविताएँ सहारा बनकर !!! "" जुबान की लाज रख पाये ??. वाह !!! चंद शब्दों में विराट वृतांत उजागर करती आपकी आपकी सुन्दर रचना !!!

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  3. लगभग हर जगह यही सब -कुछ होता है ..रह रह जाती है कविताएँ सहारा बनकर !!! "" जुबान की लाज रख पाये ??. वाह !!! चंद शब्दों में विराट वृतांत उजागर करती आपकी आपकी सुन्दर रचना !!!

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