Sunday, May 25, 2008

गम न कीजि‍ए


नशेमन जला है
तो फि‍र बना लीजि‍ए
चमन के उजड़ने का
गम न कि‍या कीजि‍ए

साए में अंधेरों के
वक्‍त गुजर ही जाएगा
वो बैठे हैं पहलू में
बस ये सोचा कीजि‍ए

करना हो मुश्‍ि‍कल
गर फैसला जिंदगी का
हर फैसले को
तकदीर पर छोड़ दि‍या कीजि‍ए

दरि‍म्‍यां हमारे
फासला कम न होगा कभी
हकीकत में मुमि‍कन नहीं
ख्‍वाबों में मि‍ल लि‍या कीजि‍ए।

6 comments:

  1. बहुत सुंदर। लिखते रहिए।

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  2. दरि‍म्‍यां हमारे
    फासला कम न होगा कभी
    हकीकत में मुमि‍कन नहीं
    ख्‍वाबों में मि‍ल लि‍या कीजि‍ए।


    -बहुत खूब.

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  3. Rashmi ji,

    Kya khoob likhtii hein aap. badhayee...
    Isii zameen par meri ghazal ke kuchh asha'r pesh hein..

    baqht ke kaandhe pe baitha keejiye
    waqt ko haathon se likha keejiye

    aap ke gham se merii palkein jalein
    hai bahut sastaa ye sauda keejiye

    umra bhar bas sochna kaafii nahiin
    sochna hai kya ye sovha keejiye...

    shubhkamnaon ke saath...
    p k kush 'tanha'

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  4. बहुत दिनों के बाद आपकी एक नयी पोस्ट पढ़ने को मिली है.. कहाँ थीं आप? बहुत खूब लिखा है...!!! कभी इस नाचीज़ के ब्लोग की तरफ भी रुख कीजियेगा...!!!

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  5. क्या खूब लिखती हो, अच्छा लिखती हो बधाई है.

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  6. दरि‍म्‍यां हमारे
    फासला कम न होगा कभी
    हकीकत में मुमि‍कन नहीं
    ख्‍वाबों में मि‍ल लि‍या कीजि‍ए।


    बहुत खूब....

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