Friday, February 22, 2008

अरमानों की कलि‍यां


सूख चली है अरमानों की कलि‍यां
फीकी पड़ रही है रि‍श्‍तों की मधुरता
कौन जानता था ऐसे
आत्‍मीय रि‍श्‍तों में भी
दरारें हुआ करती हैं
जो सोख लेती है सारा अपनत्‍व और
रह जाता है अवशेष
मात्र ति‍रस्‍कार, उपेक्षा और
अंतहीन दूरि‍यां

4 comments:

  1. कड़वे यथार्थ का अद्भुत प्रस्तुतीकरण....शब्द और भाव...दोनों लाजवाब. वाह.
    नीरज

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  2. rashmi
    गहन भाव समेटती कविता ।

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  3. रिश्तों की मधुरता ...तो सच में गुम हो गयी है ...और रह गयीं है अंतहीन दूरियां ....बेहद सुन्दर रचना ....

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  4. जो जी में आया था अपने
    सब कुछ ही तो कह डाला है

    साँझा दर्दों के करतब होते हैं ऐसे

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